tag:blogger.com,1999:blog-81480244995249728352024-03-06T04:54:24.102+05:30मेरे सपनेThis blog is dedicated to hindi poetry of old as well as new poets.
गीत जब मर जायेंगे तो क्या यहाँ रह जायेगा,
एक सिसकता आँसुओं का कारवाँ रह जायेगा....Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.comBlogger167125tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-21198496603248155232013-01-25T05:30:00.000+05:302013-01-25T05:30:05.515+05:30सारे जहाँ से अच्छा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: left;">
<span style="color: black; font-family: Mangal;">सारे जहाँ से अच्छा<br /> हिन्दोस्तां हमारा<br /> हम बुलबुलें हैं इसकी<br /> वो गुलिस्तां हमारा</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: black;"> </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: black; font-family: Mangal;">परबत वो सबसे ऊँचा<br /> हमसाया आसमां का<br /> वो संतरी हमारा<br /> वो पासबां हमारा</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: black;"> </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: black; font-family: Mangal;">गोदी में खेलती हैं<br /> जिसके हज़ारों नदियाँ<br /> गुलशन है जिसके दम से<br /> रश्क–ए–जिनां हमारा</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: black;"> </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: black; font-family: Mangal;">मज़हब नहीं सिखाता<br /> आपस में बैर रखना<br /> हिन्दी हैं हम, वतन है<br /> हिन्दोस्तां हमारा</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-family: Mangal;"></span> </div>
<span style="mso-spacerun: yes;"><div style="text-align: left;">
<span style="color: black;"> <span style="font-family: Mangal;">— मुहम्मद इक़बाल</span></span></div>
</span></div>
Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-52932634672570736012013-01-20T06:00:00.000+05:302013-01-20T06:00:01.231+05:30ठुकरा दो या प्यार करो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं।<br />
सेवा में बहुमुल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं॥<br />
<br />
धूमधाम से साजबाज से वे मंदिर में आते हैं।<br />
मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं॥<br />
<br />
मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी।<br />
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी॥<br />
<br />
धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं।<br />
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं॥<br />
<br />
कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं।<br />
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं॥<br />
<br />
नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आयी।<br />
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ! चली आयी॥<br />
<br />
पूजा और पुजापा प्रभुवर! इसी पुजारिन को समझो।<br />
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो॥<br />
<br />
मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ।<br />
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ॥<br />
<br />
चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो।<br />
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो॥<br />
<br />
- सुभद्रा कुमारी चौहान</div>
Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-69220939039561316412013-01-15T00:32:00.000+05:302013-01-15T00:32:00.111+05:30उस नीलम की संध्या में<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
उस नीलम की संध्या में <br />
हम तुम दो तारों जैसे ! <br />
वो घनी चांदनी शीतल <br />
वो कथा कहानी से पल<br />
वो नर्म दूब की शबनम<br />
वो पुनर्जन्म सा मौसम <br />
<br />
वो मलय समीरण झोंके <br />
जीवन पतवारों जैसे !<br />
उस नीलम की संध्या में <br />
हम तुम दो तारों जैसे !<br />
<br />
वो चांद का मद्धम तिरना<br />
वो रात का रिमझिम गिरना<br />
वो मौन का कविता करना<br />
औ' बात का कुछ ना कहना<br />
<br />
तारों के जगमग दीपक<br />
नभ बंदनवारों जैसे !<br />
उस नीलम की संध्या में <br />
हम तुम दो तारों जैसे <br />
-पूर्णिमा वर्मन</div>
Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-71197870059205901882013-01-10T02:46:00.000+05:302013-01-10T02:46:00.595+05:30गुलाबी चूड़ियाँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,<br />
सात साल की बच्ची का पिता तो है!<br />
सामने गियर से उपर<br />
हुक से लटका रक्खी हैं<br />
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी<br />
बस की रफ़्तार के मुताबिक<br />
हिलती रहती हैं…<br />
झुककर मैंने पूछ लिया<br />
खा गया मानो झटका<br />
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा<br />
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब<br />
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया<br />
टाँगे हुए है कई दिनों से<br />
अपनी अमानत<br />
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने<br />
मैं भी सोचता हूँ<br />
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ<br />
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?<br />
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा<br />
और मैंने एक नज़र उसे देखा<br />
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में<br />
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर<br />
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर<br />
और मैंने झुककर कहा – <br />
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ<br />
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे<br />
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?<br />
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!<br />
<br />
-नागार्जुन</div>
Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-41832083798932257112012-12-31T05:00:00.000+05:302012-12-31T05:00:01.871+05:30नए साल का शुभ दुलार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: #444732; font-family: Mangal;">नई दिशा है नव विचार है<br /> नए साल का खुला द्वार है</span><br />
<span style="color: #444732; font-family: Mangal;"></span><br />
<span style="color: #444732; font-family: Mangal;">जीवन इस बगिया सा महके<br /> राग रंग तितली सा चहके<br /> सोपानों पर मिले सफलता<br /> सब मंगल कामों में शुभता</span><br />
<span style="font-family: Shusha; font-size: medium;"><span style="font-size: small;"><br /></span><br />
<span style="color: #444732; font-family: Mangal; font-size: small;">नीड़ों में गुंजार रहे<br /> सब अपनों में प्यार रहे<br /> सुखद स्वप्न सब सच हो जाएँ<br /> नए साल का सरोकार है</span><br />
<span style="color: #444732; font-family: Mangal; font-size: small;"></span><br />
<span style="color: #444732; font-family: Mangal;"><span style="font-size: small;">फूलों से शोभित पल-छिन<br /> राह कभी न लगे कठिन<br /> सुबह स्फूर्ति को लेकर आए<br /> दिवस धूप से निखर नहाए</span><span style="font-family: Shusha;"><br /></span></span><br />
<span style="color: #444732; font-family: Mangal; font-size: small;">शामों को विश्राम सजाए<br /> मित्रों को जलपान लुभाए<br /> मनोकामनाएँ हों पूरी<br /> नए साल का शुभ दुलार है</span><br />
<span style="color: #444732; font-family: Mangal; font-size: small;"></span><br />
<span style="color: #514a68; font-family: Mangal; font-size: small;"> - पूर्णिमा वर्मन</span></span></div>
Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-10803365052639361432012-12-29T11:18:00.000+05:302012-12-29T11:18:00.195+05:30चलो अकेले रे!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: Mangal;">गर पुकार सुन कोई न आए<br /> तब भी चलो अकेले रे<br /> चलो अकेले! चलो अकेले! चलो अकेले<br /> चलो अकेले रे</span><br />
<span style="font-family: Mangal;"></span><br />
<span style="font-family: Mangal;">गर कोई भी करे न बातें<br /> सुन ओ अरे अभागे<br /> गर सब तुमसे मुख फेरे<br /> हों कायर, भय जागे<br /> लगा प्राण की बाजी तब तू<br /> मुखर बनो, अपनी मन-कथा<br /> कहो अकेले रे</span><br />
<span style="font-family: Mangal;"></span><br />
<span style="font-family: Mangal;">यदि सारे फिर जाएँ तुमसे<br /> सुन ओ अरे अभागे<br /> जाते समय सघन पथ तुझको<br /> कोई न मुड़के देखे<br /> तब पथ के काँटों को अपने<br /> रक्त सने चरणों के नीचे<br /> दलो अकेले रे</span><br />
<br />
<span style="font-family: Mangal;">गर ना हो आलोक कहीं भी<br /> सुन ओ अरे अभागे<br /> यदि अंधियारी रातों में<br /> झंझावत का यम जागे<br /> दरवाज़े हों बंद, जले वज्रानल तब तुम<br /> अपना सीना-पंजर बालो<br /> जलो अकेले रे!</span><br />
<br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: x-small;"><span lang="en-us"><span style="font-size: small;"></span></span><br />
<span style="font-size: small;"><span lang="en-us"> -</span>रवींद्रनाथ टैगोर</span></span></div>
Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-44991908767301664192012-12-24T08:00:00.000+05:302012-12-24T08:00:01.223+05:30क्रिसमस<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: Mangal;">छुटि्टयों का मौसम है<br /> त्योहार की तैयारी है<br /> रौशन हैं इमारतें<br /> जैसे जन्नत पधारी है </span><br />
<br />
<span style="font-family: Mangal;">कड़ाके की ठंड है<br /> और बादल भी भारी है<br /> बावजूद इसके लोगों में जोश है<br /> और बच्चे मार रहे किलकारी हैं<br /> यहाँ तक कि पतझड़ की पत्तियाँ भी<br /> लग रही सबको प्यारी हैं<br /> दे रहे हैं वो भी दान <br /> जो धन के पुजारी हैं।</span><br />
<span style="font-family: Mangal;"></span><br />
<span style="font-family: Mangal;">खुश हैं ख़रीदार<br /> और व्यस्त व्यापारी हैं<br /> खुशहाल हैं दोनों<br /> जबकि दोनों ही उधारी हैं</span><br />
<span style="font-family: Mangal;"></span><br />
<span style="font-family: Mangal;">भूल गई यीशु का जनम<br /> ये दुनिया संसारी है<br /> भाग रही है उसके पीछे<br /> जिसे हो हो हो की बीमारी है</span><br />
<span style="font-family: Mangal;"></span><br />
<span style="font-family: Mangal;">लाल सूट और सफ़ेद दाढ़ी<br /> क्या शान से सँवारी है<br /> मिलता है वो मॉल में<br /> पक्का बाज़ारी है</span><br />
<span style="font-family: Mangal;"></span><br />
<span style="font-family: Mangal;">बच्चे हैं उसके दीवाने<br /> जैसे जादू की पिटारी है<br /> झूम रहे हैं जम्हूरे वैसे<br /> जैसे झूमता मदारी हैं</span><br />
<span style="font-family: Mangal;"></span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: x-small;"><span style="font-size: small;"> -राहुल उपाध्याय</span> </span></div>
Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-38958735022847353362012-12-22T11:14:00.000+05:302012-12-22T11:14:00.133+05:30इस पार - उस पार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: Mangal;">१</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो,<br />उस पार न जाने क्या होगा!<br />यह चाँद उदित होकर नभ में<br /> कुछ ताप मिटाता जीवन का,<br />लहरा-लहरा यह शाखाएँ<br /> कुछ शोक भुला देतीं मन का,<br />कल मुर्झानेवाली कलियाँ<br /> हँसकर कहती हैं, मग्न रहो,<br />बुलबुल तरू की फुनगी पर से<br /> संदेश सुनाती यौवन का,<br />तुम देकर मदिरा के प्याले<br /> मेरा मन बहला देती हो,<br />उस पार मुझे बहलाने का<br /> उपचार न जाने क्या होगा!<br />इस पार, प्रिये, मधु है तुम हो,<br />उस पार न जाने क्या होगा!</span><br />
<span style="color: black; font-family: Mangal;">२</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">जग में रस की नदियाँ बहतीं,<br />रसना दो बूँदे पाती है,<br />जीवन की झिलमिल-सी झाँकी<br /> नयनों के आगे आती है,<br />स्वर-तालमयी वीणा बजती,<br />मिलता है बस झंकार मुझे<br /> मेरे सुमनों की गंध कहीं<br /> यह वायु उड़ा ले जाती है,<br />ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये,<br />ये साधन भी छिन जाएँगे,<br />तब मानव की चेतनता का<br /> आधार न जाने क्या होगा!<br />इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो<br /> उस पार न जाने क्या होगा!</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">३</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">प्याला है पर पी पाएँगे,<br />है ज्ञात नहीं इतना हमको,<br />इस पार नियति ने भेजा है<br /> असमर्थ बना कितना हमको,<br />कहनेवाले पर, कहते हैं<br /> हम कर्मों से स्वाधीन सदा,<br />करनेवालों की परवशता<br /> है ज्ञात किसे, जितनी हमको,<br />कह तो सकते हैं, कहकर ही<br /> कुछ दिल हल्का कर लेते हैं;<br />उस पार अभागे मानव का<br /> अधिकार न जाने क्या होगा!<br />इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो<br /> उस पार न जाने क्या होगा!</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">४</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">कुछ भी न किया था जब उसका,<br />उसने पथ में काँटे बोए,<br />वे भार दिए धर कन्धों पर<br /> जो रो-रोकर हमने ढोए,<br />महलों के सपनों के भीतर<br /> जर्जर खंडहर का सत्य भरा,<br />उस में ऐसी हलचल भर दी,<br />दो रात न हम सुख से सोए,<br />अब तो हम अपने जीवन भर<br /> उस क्रूर कठिन को कोस चुके;<br />उस पार नियति का मानव से<br /> व्यवहार न जाने क्या होगा!<br />इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो<br /> उस पार न जाने क्या होगा!</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">५</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">संसृति के जीवन में, सुभगे<br /> ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी,<br />जब दिनकर की तमहर किरणें<br /> तम के अंदर छिप जाएँगी,<br />जब निज प्रियतम का शव, रजनी<br /> तम की चादर से ढक देगी,<br />तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी<br /> कितने दिन खैर मनाएगी,<br />जब इस लम्बे-चौड़े जग का<br /> अस्तित्व न रहने पाएगा,<br />तब हम दोनों का नन्हा-सा<br /> संसार न जाने क्या होगा!<br />इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो<br /> उस पार न जाने क्या होगा!</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">६</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">ऐसा चिर पतझड़ आएगा<br /> कोयल न कुहुक फिर पाएगी<br /> बुलबुल न अंधेरे में गा-गा<br /> जीवन की ज्योति जगाएगी,<br />अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर<br />'मरमर' न सुने फिर जाएँगे,<br />अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन<br /> करने के हेतु न आएगी,<br />जब इतनी रसमय ध्वनियों का<br /> अवसान, प्रिये, हो जाएगा,<br />तब शुष्क हमारे कंठों का<br /> उद्गार न जाने क्या होगा!<br />इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो<br /> उस पार न जाने क्या होगा!</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">७</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन<br /> निर्झरिणी भूलेगी नर्तन<br /> निर्झर भूलेगा निज टलमल,<br />सरिता अपना 'कलकल' गायन<br /> वह गायक-नायक सिंधु कहीं<br /> चुप हो छिप जाना चाहेगा,<br />मुँह खोल खड़े रह जाएँगे<br /> गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण,<br />संगीत सजीव हुआ जिनमें,<br />जब मौन वही हो जाएँगे,<br />तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का<br /> जड़ तार न जाने क्या होगा!<br />इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो<br /> उस पार न जाने क्या होगा!</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">८</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">उतरे इन आँखों के आगे<br /> जो हार चमेली ने पहने,<br />वह छीन रहा, देखो, माली<br /> सुकुमार लताओं के गहने,<br />दो दिन में खींची जाएगी<br /> ऊषा की सारी सिंदूरी,<br />पट इंद्रधनुष का सतरंगा<br /> पाएगा कितने दिन रहने,<br />जब मूर्तिमती सत्ताओं की<br /> शोभा-सुषमा लुट जाएगी,<br />तब कवि के कल्पित स्वप्नों का<br /> शृंगार न जाने क्या होगा!<br />इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो<br /> उस पार न जाने क्या होगा!</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">९</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: x-small;"><span style="font-size: small;">दृग देख जहाँ तक पाते हैं,<br />तम का सागर लहराता है,<br />फिर भी उस पार खड़ा कोई<br /> हम सब को खींच बुलाता है,<br />मैं आज चला, तुम आओगी<br /> कल, परसों सब संगी-साथी,<br />दुनिया रोती-धोती रहती,<br />जिसको जाना है, जाता है,<br />मेरा तो होता मन डग-मग<br /> तट पर के ही हलकोरों से,<br />जब मैं एकाकी पहुँचूँगा<br /> मंझधार, न जाने क्या होगा!<br />इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो<br /> उस पार न जाने क्या होगा!</span> </span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: x-small;"></span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: x-small;"> -<span style="font-size: small;">हरिवंशराय बच्चन</span></span></div>
Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-32476601795069467452012-12-18T11:11:00.000+05:302012-12-18T11:11:00.483+05:30कमल के बहाने<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: Mangal;">कैसे कह दूँ रूप तुम्हारा, <br />जैसे कोई खिला कमल है,<br />कैसे कह दूँ रंग तुम्हारा, <br />चाँदी-सा कोई चंद्रकमल है,<br />नीलकमल आँखें हैं तेरी, <br />रक्तकमल तेरा शृंगार,<br />कमलनाल की लोच लिए, <br />आमंत्रित करती हो अभिसार <br /> गोधूलि -बेला में तेरे-<br />कर-कमलों में दीप सजे,<br />कमलपात पर किसी बूँद-सा,<br />ठिठका-सा एक स्वप्न- जगे <br /><br /> ये बिंब मेरे सब झूठ हुए-<br />ईंटों से बुनते शतदल में,<br />खो गई जागीर कमल की-<br />कंक्रीटों के जंगल में ।<br /> कहाँ गए वो पोखर-गागर,<br />कहाँ गए वो ताल-तलैया,<br />मेढक-कछुए-झींगुर-जुगनू,<br />गिल्ली-डंडा, ता-ता-थैया,<br />घूँघट के कंज-पदों से मह-मह,<br />क्यों घाट सुहाने टूट गए?<br />चूड़ी से छुप चुगली करते, <br />मटके किससे फूट गए ?<br /><br />अब धुँआ-धक्कीड़ शोर बहुत है,<br />बगुलों के ठिकानों पर,<br />मासूम मछलियाँ कैद हुई-<br />इन ऊँचे मकानों पर <br /> जल रहा हरेक कमल है,<br />चुप है कोयल बागों में,<br />ये सब हमको दिखा करेंगे,<br />बच्चों की किताबों में <br /><br /> - अमित कुलश्रेष्ठ</span></div>
Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-44329215243691830812012-12-14T05:00:00.000+05:302012-12-14T05:00:04.207+05:30सर्द मौसम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: Mangal;"><span style="font-family: Mangal;">दिन अंधेरा, रात काली<br /> सर्द मौसम है</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">दहशतों की कैद में<br /> लेकिन नहीं हम हैं!</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">नहीं गौरैया<br /> यहाँ पाँखें खुजाती है<br /> घोंसले में छिपी चिड़िया<br /> थरथराती है</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">है यहाँ केवल अमावस<br /> नहीं, पूनम है!</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">गूँजती शहनाइयों में<br /> दब गईं चीखें<br /> दिन नहीं बदले<br /> बदलती रहीं तारीखें<br /> हिल रही परछाइयों-सा<br /> हिल रहा भ्रम है!</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">वनों को, वनपाखियों का<br /> घर न होना है<br /> मछलियों को ताल पर<br /> निर्भर न होना है</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">दर्ज यह इतिहास में<br /> हो रहा हरदम है!</span><br />
<span style="font-family: Mangal;"></span><br />
<span style="font-family: Mangal;"> -नचिकेता</span></span><br />
<br /></div>
Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-29906718150703709142012-12-11T10:54:00.000+05:302012-12-11T10:55:17.181+05:30लेकिन मन आज़ाद नहीं है <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: Mangal;">तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है<br /> सचमुच आज काट दी हमने<br /> जंजीरें स्वदेश के तन की<br /> बदल दिया इतिहास बदल दी<br /> चाल समय की चाल पवन की</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">देख रहा है राम राज्य का<br /> स्वप्न आज साकेत हमारा<br /> खूनी कफन ओढ़ लेती है<br /> लाश मगर दशरथ के प्रण की</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">मानव तो हो गया आज<br /> आज़ाद दासता बंधन से पर<br /> मज़हब के पोथों से ईश्वर का जीवन आज़ाद नहीं है।<br /> तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है।</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">हम शोणित से सींच देश के <br /> पतझर में बहार ले आए<br /> खाद बना अपने तन की-<br />हमने नवयुग के फूल खिलाए </span><br />
<span style="font-family: Mangal;">डाल डाल में हमने ही तो<br /> अपनी बाहों का बल डाला<br /> पात-पात पर हमने ही तो<br /> श्रम जल के मोती बिखराए </span><br />
<span style="font-family: Mangal;">कैद कफस सय्याद सभी से<br /> बुलबुल आज स्वतंत्र हमारी<br /> ऋतुओं के बंधन से लेकिन अभी चमन आज़ाद नहीं है।<br /> तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है।</span><br />
<span style="font-family: Mangal;">यद्यपि कर निर्माण रहे हम<br /> एक नई नगरी तारों में <br /> सीमित किन्तु हमारी पूजा<br /> मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारों में </span><br />
<span style="font-family: Mangal;">यद्यपि कहते आज कि हम सब<br /> एक हमारा एक देश है<br /> गूँज रहा है किन्तु घृणा का<br /> तार बीन की झंकारों में </span><br />
<span style="font-family: Mangal;">गंगा जमना के पानी में<br /> घुली मिली ज़िन्दगी हमारी<br /> मासूमों के गरम लहू से पर दामन आज़ाद नहीं है।<br /> तन तो आज स्वतंत्र हमारा लेकिन मन आज़ाद नहीं है।</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: x-small;"></span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: x-small;">-<span style="font-size: medium;">गोपाल दास नीरज</span></span></div>
Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-45842823505037402372012-01-05T05:00:00.000+05:302012-12-11T11:37:19.726+05:30अमावस की काली रातों में<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अमावस की काली रातों में दिल का दरवाजा खुलता है,<br />
जब दर्द की प्याली रातों में गम आंसू के संग होते हैं,<br />
जब पिछवाड़े के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं,<br />
जब घड़ियाँ टिक-टिक चलती हैं,सब सोते हैं, हम रोते हैं,<br />
जब बार-बार दोहराने से सारी यादें चुक जाती हैं,<br />
जब ऊँच-नीच समझाने में माथे की नस दुःख जाती है,<br />
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,<br />
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।<br />
<br />
<br />
जब पोथे खाली होते है, जब हर सवाली होते हैं,<br />
जब गज़लें रास नही आती, अफ़साने गाली होते हैं,<br />
जब बासी फीकी धूप समेटे दिन जल्दी ढल जता है,<br />
जब सूरज का लश्कर चाहत से गलियों में देर से जाता है,<br />
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मन ही मन घुट जाती है,<br />
जब कालेज से घर लाने वाली पहली बस छुट जाती है,<br />
जब बेमन से खाना खाने पर माँ गुस्सा हो जाती है,<br />
जब लाख मन करने पर भी पारो पढ़ने आ जाती है,<br />
जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है,<br />
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,<br />
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।<br />
<br />
<br />
जब कमरे में सन्नाटे की आवाज़ सुनाई देती है,<br />
जब दर्पण में आंखों के नीचे झाई दिखाई देती है,<br />
जब बड़की भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो,<br />
क्या लिखते हो दिन भर, कुछ सपनों का भी सम्मान करो,<br />
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं,<br />
जब बाबा हमें बुलाते है,हम जाते हैं,घबराते हैं,<br />
जब साड़ी पहने एक लड़की का फोटो लाया जाता है,<br />
जब भाभी हमें मनाती हैं, फोटो दिखलाया जाता है,<br />
जब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है,<br />
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,<br />
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।<br />
<br />
<br />
दीदी कहती हैं उस पगली लडकी की कुछ औकात नहीं,<br />
उसके दिल में भैया तेरे जैसे प्यारे जज़्बात नहीं,<br />
वो पगली लड़की मेरी खातिर नौ दिन भूखी रहती है,<br />
चुप चुप सारे व्रत करती है, मगर मुझसे कुछ ना कहती है,<br />
जो पगली लडकी कहती है, हाँ प्यार तुझी से करती हूँ,<br />
लेकिन मैं हूँ मजबूर बहुत, अम्मा-बाबा से डरती हूँ,<br />
उस पगली लड़की पर अपना कुछ अधिकार नहीं बाबा,<br />
ये कथा-कहानी-किस्से हैं, कुछ भी सार नहीं बाबा,<br />
बस उस पगली लडकी के संग जीना फुलवारी लगता है,<br />
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है |<br />
-कुमार विश्वास</div>
Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-69603806274417959032011-12-18T10:50:00.000+05:302011-12-18T10:50:01.478+05:30अबकी बारबहुत लड़े हम अबकी बार<br />जीवन की गहमा गहमी में आते रहे <br />उतार चढ़ाव <br /><br />किसने देखे किसने जाने<br />इस दुनिया के ताने बाने<br />कितनी बातें कितनी शर्तें<br />तर्कों पर तर्कों की पर्तें<br />बूत गए हम दोनो तो हैं एक नाव की <br />दो पतवार <br /><br />लंबी बहसों का हलदायक<br />लड़ना अपनों का परिचायक<br />सच्चे मन से बहने वाले<br />आँसू होते हैं फलदायक<br />कड़वी दवा हमें देती है कभी कभी<br />असली उपचार<br /><br />चलो काम को कल पर टालें<br />कुछ पल तो हम साथ बितालें<br />साथ बुने जो सपने मिल कर<br />आओ उनको पुनः संभालें<br />हाथ मिलाकर आज सजालें अपने सुख<br />का पारावार<br /><br />-पूर्णिमा वर्मनVivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-44531672014817287462011-12-15T10:48:00.001+05:302011-12-15T10:48:01.760+05:30छाप तिलक सब छीनी रेछाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके<br />प्रेम भटी का मदवा पिलाइके<br />मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके<br />गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ<br />बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके<br />बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवा<br />अपनी सी रंग दीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके<br />खुसरो निजाम के बल बल जाए<br />मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके<br />छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके <br /><br />-अमीर खुसरो<br /><br />जीवन परिचय- अमीर खुसरो दहलवी का जन्म सन 1253 में उत्तर-प्रदेश के एटा जिले के पटियाली नामक ग्राम में गंगा किनारे हुआ था। इनका वास्तविक नाम था - अबुल हसन यमीनुद्दीन मुहम्मद। अमीर खुसरो को बचपन से ही कविता करने का शौक़ था। इनकी काव्य प्रतिभा की चकाचौंध में, इनका बचपन का नाम अबुल हसन बिल्कुल ही विस्मृत हो कर रह गया। इनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ तुहफ़ा-तुस-सिगर, बाक़िया नाक़िया, तुग़लकनामा, नुह-सिफ़िर हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने अपने ऐतिहासिक ग्रंथ 'तारीखे-फिरोज शाही' में स्पष्ट रुप से लिखा है कि बादशाह जलालुद्दीन फ़ीरोज़ खिलजी ने अमीर खुसरो की एक चुलबुली फ़ारसी कविता से प्रसन्न होकर उन्हें 'अमीर' का ख़िताब दिया था जो उन दिनों बहुत ही इज़ज़त की बात थी।Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-40985876880763720072011-12-12T10:46:00.002+05:302011-12-12T10:46:00.092+05:30तिब्बततिब्बत से आये हुए <br />लामा घूमते रहते हैं <br />आजकल मंत्र बुदबुदाते <br /><br />उनके खच्चरों के झुंड <br />बगीचों में उतरते हैं <br />गेंदे के पौधों को नहीं चरते <br /><br />गेंदे के एक फूल में <br />कितने फूल होते हैं <br />पापा ? <br /><br />तिब्बत में बरसात <br />जब होती है <br />तब हम किस मौसम में <br />होते हैं ? <br /><br />तिब्बत में जब तीन बजते हैं <br />तब हम किस समय में <br />होते हैं ? <br /><br />तिब्बत में <br />गेंदे के फूल होते हैं <br />क्या पापा ? <br /><br />लामा शंख बजाते है पापा? <br /><br />पापा लामाओं को <br />कंबल ओढ़ कर <br />अंधेरे में <br />तेज़-तेज़ चलते हुए देखा है <br />कभी ? <br /><br />जब लोग मर जाते हैं <br />तब उनकी कब्रों के चारों ओर <br />सिर झुका कर <br />खड़े हो जाते हैं लामा <br /><br />वे मंत्र नहीं पढ़ते। <br />वे फुसफुसाते हैं … तिब्बत...<br />तिब्बत… <br />तिब्बत-तिब्बत... <br />तिब्बत - तिब्बत - तिब्बत... <br />तिब्बत-तिब्बत ... <br />तिब्बत…<br />तिब्बत -तिब्बत... <br />तिब्बत …… <br /><br />और रोते रहते हैं <br />रात-रात भर। <br /><br />क्या लामा <br />हमारी तरह ही <br />रोते हैं <br />पापा ?<br /><br />-उदय प्रकाश <br /><br />जीवन परिचय- उदय प्रकाश (१ जनवरी, १९५२) एक कवि कथाकार और फिल्मकार हैं। इनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ सुनो कारीगर, अबूतर कबूतर, रात में हारमोनियम(कविता संग्रह), दरियायी घोड़ा, तिरिछ, और अंत में प्रार्थना, पॉलगोमरा का स्कूटर और रात में हारमोनियम (कहानी संग्रह) ईश्वर की आंच (निबंध और आलोचना संग्रह) पीली छतरीवाली लड़की (लघु उपन्यास) इंदिरा गांधी की आखिरी लड़ाई, कला अनुभव, लाल घास पर नीले घोड़े(अनुवाद) हैं। १९८० में अपनी कविता 'तिब्बत' के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित ,ओम प्रकाश सम्मान,श्रीकांत वर्मा पुरस्कार,मुक्तिबोध सम्मान,साहित्यकार सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं।Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-90736090781347266722011-12-09T10:42:00.000+05:302011-12-09T10:42:00.758+05:30सो न सकासो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात<br />और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात<br /><br />मेरे बहुत चाहने पर भी नींद न मुझ तक आई<br />ज़हर भरी जादूगरनी-सी मुझको लगी जुन्हाई<br />मेरा मस्तक सहला कर बोली मुझसे पुरवाई<br />दूर कहीं दो आँखें भर-भर आई सारी रात<br />और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात<br /><br />गगन बीच रुक तनिक चन्द्रमा लगा मुझे समझाने<br />मनचाहा मन पा लेना है खेल नहीं दीवाने<br />और उसी क्षण टूटा नभ से एक नखत अनजाने<br />देख जिसे तबियत मेरी घबराई सारी रात<br />और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात<br /><br />रात लगी कहने सो जाओ देखो कोई सपना<br />जग ने देखा है बहुतों का रोना और तड़पना<br />यहाँ तुम्हारा क्या, कोई भी नहीं किसी का अपना<br />समझ अकेला मौत मुझे ललचाई सारी रात<br />और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात<br /><br />मुझे सुलाने की कोशिश में जागे अनगिन तारे<br />लेकिन बाज़ी जीत गया मैं वे सबके सब हारे<br />जाते-जाते चाँद कह गया मुझसे बड़े सकारे<br />एक कली मुरझाने को मुसकाई सारी रात<br />और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात <br /><br />-रमानाथ अवस्थी <br /><br />जीवन परिचय- रमानाथ अवस्थी (1926-2002) का जन्म फतेहपुर, उत्तरप्रदेश में हुआ। इन्होंने आकाशवाणी में प्रोडयूसर के रूप में वर्षों काम किया। 'सुमन- सौरभ, 'आग और पराग, 'राख और शहनाई तथा 'बंद न करना द्वार इनकी मुख्य काव्य-कृतियां हैं। ये लोकप्रिय और मधुर गीतकार हैं। इन्हें उत्तरप्रदेश सरकार ने पुरस्कृत किया है। Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-72282258219385099392011-12-06T05:08:00.000+05:302011-12-06T05:08:00.286+05:30चारु चंद्र की चंचल किरणेंचारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,<br /><br />स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।<br /><br />पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,<br /><br />मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥<br /><br /><br />पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,<br /><br />जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर वीर निर्भीकमना,<br /><br />जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?<br /><br />भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥<br /><br /><br />किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,<br /><br />राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।<br /><br />बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,<br /><br />जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!<br /><br /><br />मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,<br /><br />तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।<br /><br />वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,<br /><br />विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥<br /><br /><br />कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;<br /><br />आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।<br /><br />बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,<br /><br />मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-<br /><br /><br />क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;<br /><br />है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?<br /><br />बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,<br /><br />पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!<br /><br /><br />है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,<br /><br />रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।<br /><br />और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,<br /><br />शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।<br /><br /><br />सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,<br /><br />अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!<br /><br />अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,<br /><br />पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥<br /><br /><br />तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,<br /><br />वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।<br /><br />अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।<br /><br />किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!<br /><br /><br />और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,<br /><br />व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।<br /><br />कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;<br /><br />पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक! <br /><br />-मैथिलीशरण गुप्तVivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-11239973857834549332011-12-02T09:03:00.002+05:302011-12-02T09:03:00.570+05:30क्यों प्यार किया<br />जिसने छूकर मन का सितार, <br />कर झंकृत अनुपम प्रीत-गीत, <br />ख़ुद तोड़ दिया हर एक तार, <br />मैंने उससे क्यों प्यार किया ? <br /><br /><br />बरसा जीवन में ज्योतिधार, <br />जिसने बिखेर कर विविध रंग, <br />फिर ढाल दिया घन अंधकार, <br />मैंने उससे क्यों प्यार किया ? <br /><br /><br />मन को देकर निधियां हज़ार, <br />फिर छीन लिया जिसने सब कुछ,<br />कर दिया हीन चिर निराधार, <br />मैंने उससे क्यों प्यार किया ? <br /><br /><br />जिसने पहनाकर प्रेमहार, <br />बैठा मन के सिंहासन पर, <br />फिर स्वयं दिया सहसा उतार, <br />मैंने उससे क्यों प्यार किया ? <br /><br />(1946 में रचित) <br />-शैलेन्द्रVivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-21140012705199740922011-11-29T09:01:00.000+05:302011-11-29T09:01:00.194+05:30बदनाम रहे बटमारबदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा<br />मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा<br /><br />दो दिन के रैन बसेरे की, <br />हर चीज़ चुराई जाती है<br />दीपक तो अपना जलता है, <br />पर रात पराई होती है<br />गलियों से नैन चुरा लाए<br />तस्वीर किसी के मुखड़े की<br />रह गए खुले भर रात नयन, दिल तो दिलदारों ने लूटा<br />मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा<br /><br />शबनम-सा बचपन उतरा था,<br />तारों की गुमसुम गलियों में<br />थी प्रीति-रीति की समझ नहीं, <br />तो प्यार मिला था छलियों से<br />बचपन का संग जब छूटा तो<br />नयनों से मिले सजल नयना<br />नादान नये दो नयनों को, नित नये बजारों ने लूटा<br />मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा<br /><br />हर शाम गगन में चिपका दी, <br />तारों के अक्षर की पाती<br />किसने लिक्खी, किसको लिक्खी, <br />देखी तो पढ़ी नहीं जाती<br />कहते हैं यह तो किस्मत है<br />धरती के रहनेवालों की<br />पर मेरी किस्मत को तो इन, ठंडे अंगारों ने लूटा<br />मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा<br /><br />अब जाना कितना अंतर है, <br />नज़रों के झुकने-झुकने में<br />हो जाती है कितनी दूरी, <br />थोड़ा-सी रुकने-रुकने में<br />मुझ पर जग की जो नज़र झुकी<br />वह ढाल बनी मेरे आगे<br />मैंने जब नज़र झुकाई तो, फिर मुझे हज़ारों ने लूटा<br />मेरी दुल्हन-सी रातों को नौ लाख सितारों ने लूटा<br /><br />-गोपाल सिंह नेपालीVivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-66853846916601413552011-11-26T09:00:00.000+05:302011-11-26T09:00:00.312+05:30मुरझाया फूलयह मुरझाया हुआ फूल है,<br />इसका हृदय दुखाना मत।<br />स्वयं बिखरने वाली इसकी<br />पंखड़ियाँ बिखराना मत॥<br /><br />गुजरो अगर पास से इसके<br />इसे चोट पहुँचाना मत।<br />जीवन की अंतिम घड़ियों में<br />देखो, इसे रुलाना मत॥<br /><br />अगर हो सके तो ठंडी<br />बूँदें टपका देना प्यारे!<br />जल न जाए संतप्त-हृदय<br />शीतलता ला देना प्यारे!!<br /><br />-सुभद्राकुमारी चौहानVivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-12540960373206657432011-11-23T08:57:00.001+05:302011-11-23T08:57:00.764+05:30इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना मेंइबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में <br />इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत[1] है <br /><br />जो डर के नार-ए-दोज़ख़[2] से ख़ुदा का नाम लेते हैं <br />इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है <br /><br />मगर जब शुक्र-ए-ने'मत में जबीं झुकती है बन्दे की <br />वो सच्ची बन्दगी है इक शरीफ़ाना इत'अत[3] है <br /><br />कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्दा[4] हो जा <br />ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बाख़ुदा[5] हो जा <br /><br />उठा लेती हैं लहरें तहनशीं[6] होता है जब कोई <br />उभरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना[7] हो जा<br /><br /><br />शब्दार्थ: <br /><br />1. व्यापार <br />2. जहन्नुम की आग <br />3. समर्पण <br />4. किसी के लक्ष्य की तरफ ध्यान न दे <br />5. खुदा का भक्त <br />6. पानी में डूबता <br />7. मौत के गहरे समुन्दर में डूब<br /><br />-जोश मलीहाबादीVivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-76105034179551329502011-11-21T08:55:00.001+05:302011-11-21T08:55:00.834+05:30अमर स्पर्श<br /><br />खिल उठा हृदय,<br />पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय!<br /><br />खुल गए साधना के बंधन,<br />संगीत बना, उर का रोदन,<br />अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण,<br />सीमाएँ अमिट हुईं सब लय।<br /><br />क्यों रहे न जीवन में सुख दुख<br />क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख?<br />तुम रहो दृगों के जो सम्मुख<br />प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय!<br /><br />तन में आएँ शैशव यौवन<br />मन में हों विरह मिलन के व्रण,<br />युग स्थितियों से प्रेरित जीवन<br />उर रहे प्रीति में चिर तन्मय!<br /><br />जो नित्य अनित्य जगत का क्रम<br />वह रहे, न कुछ बदले, हो कम,<br />हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम,<br />जग से परिचय, तुमसे परिणय!<br /><br />तुम सुंदर से बन अति सुंदर<br />आओ अंतर में अंतरतर,<br />तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर<br />वरदान, पराजय हो निश्चय!<br /><br />('युगपथ' से)<br /><br />- सुमित्रानंदन पंत Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-646018316436831462011-11-18T08:53:00.001+05:302011-11-18T08:53:00.133+05:30परिचय की वो गाँठयों ही कुछ <br />मुस्काकर तुमने<br />परिचय की वो गाँठ लगा दी!<br /><br />था पथ पर मैं <br />भूला भूला <br />फूल उपेक्षित कोई फूला <br />जाने कौन <br />लहर थी उस दिन <br />तुमने अपनी याद जगा दी। <br />परिचय की <br />वो गाँठ लगा दी!<br /><br />कभी-कभी <br />यों हो जाता है <br />गीत कहीं कोई गाता है <br />गूँज किसी <br />उर में उठती है <br />तुमने वही धार उमगा दी। <br />परिचय की <br />वो गाँठ लगा दी!<br /><br />जड़ता है <br />जीवन की पीड़ा <br />निष् तरंग पाषाणी क्रीड़ा<br />तुमने <br />अनजाने वह पीड़ा <br />छवि के शर से दूर भगा दी। <br />परिचय की <br />वो गाँठ लगा दी!<br />-त्रिलोचनVivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-72721787043330659492011-11-15T08:51:00.001+05:302011-11-15T08:51:00.423+05:30सूनी साँझबहुत दिनों में आज मिली है<br />साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।<br /><br />पेड़ खड़े फैलाए बाँहें<br />लौट रहे घर को चरवाहे<br />यह गोधूली! साथ नहीं हो तुम<br />बहुत दिनों में आज मिली है<br />साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।<br /><br />कुलबुल कुलबुल नीड़-नीड़ में<br />चहचह चहचह मीड़-मीड़ में<br />धुन अलबेली, साथ नहीं हो तुम,<br />बहुत दिनों में आज मिली है<br />साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।<br /><br />जागी-जागी सोई-सोई<br />पास पड़ी है खोई-खोई<br />निशा लजीली, साथ नहीं हो तुम,<br />बहुत दिनों में आज मिली है<br />साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।<br /><br />ऊँचे स्वर से गाते निर्झर<br />उमड़ी धारा, जैसी मुझपर - <br />बीती झेली, साथ नहीं हो तुम<br />बहुत दिनों में आज मिली है<br />साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।<br /><br />यह कैसी होनी-अनहोनी<br />पुतली-पुतली आँखमिचौनी<br />खुलकर खेली, साथ नहीं हो तुम,<br />बहुत दिनों में आज मिली है<br />साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।<br />-शिवमंगल सिंह 'सुमन'Vivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-8148024499524972835.post-80854835885372176032011-11-12T08:49:00.001+05:302011-11-12T08:49:00.199+05:30कल सहसा यह सन्देश मिलाकल सहसा यह सन्देश मिला।<br /> सूने-से युग के बाद मुझे॥<br /> कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर।<br /> तुम कर लेती हो याद मुझे॥<br /> <br />गिरने की गति में मिलकर।<br /> गतिमय होकर गतिहीन हुआ॥<br /> एकाकीपन से आया था।<br /> अब सूनेपन में लीन हुआ॥<br /> <br />यह ममता का वरदान सुमुखि।<br /> है अब केवल अपवाद मुझे॥<br /> मैं तो अपने को भूल रहा।<br /> तुम कर लेती हो याद मुझे॥<br /> <br />पुलकित सपनों का क्रय करने।<br /> मैं आया अपने प्राणों से॥<br /> लेकर अपनी कोमलताओं को।<br /> मैं टकराया पाषाणों से॥<br /> <br />मिट-मिटकर मैंने देखा है<br /> मिट जानेवाला प्यार यहाँ॥<br /> सुकुमार भावना को अपनी।<br /> बन जाते देखा भार यहाँ॥<br /> <br />उत्तप्त मरूस्थल बना चुका।<br /> विस्मृति का विषम विषाद मुझे॥<br /> किस आशा से छवि की प्रतिमा।<br /> तुम कर लेती हो याद मुझे॥<br /> <br />हँस-हँसकर कब से मसल रहा।<br /> हूँ मैं अपने विश्वासों को॥<br /> पागल बनकर मैं फेंक रहा।<br /> हूँ कब से उलटे पाँसों को॥<br /> <br />पशुता से तिल-तिल हार रहा।<br /> हूँ मानवता का दाँव अरे॥<br /> निर्दय व्यंगों में बदल रहे।<br /> मेरे ये पल अनुराग-भरे॥<br /> <br />बन गया एक अस्तित्व अमिट।<br /> मिट जाने का अवसाद मुझे॥<br /> फिर किस अभिलाषा से रूपसि।<br /> तुम कर लेती हो याद मुझे॥<br /> <br />यह अपना-अपना भाग्य, मिला।<br /> अभिशाप मुझे, वरदान तुम्हें॥<br /> जग की लघुता का ज्ञान मुझे।<br /> अपनी गुरुता का ज्ञान तुम्हें॥<br /> <br />जिस विधि ने था संयोग रचा।<br /> उसने ही रचा वियोग प्रिये॥<br /> मुझको रोने का रोग मिला।<br /> तुमको हँसने का भोग प्रिये॥<br /> <br />सुख की तन्मयता तुम्हें मिली।<br /> पीड़ा का मिला प्रमाद मुझे॥<br /> फिर एक कसक बनकर अब क्यों।<br /> तुम कर लेती हो याद मुझे॥<br /><br />-भगवतीचरण वर्माVivek Jainhttp://www.blogger.com/profile/06451362299284545765noreply@blogger.com7