तीन रंगो के
लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा
लौट आया है मेरा दोस्त
अखबारों के पन्नों
और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर
भरपूर गौरवान्वित होने के बाद
उदास बैठै हैं पिता
थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन
सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच
बार-बार फूट पड़ती है पत्नी
कभी-कभी
एक किस्से का अंत
कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है
और किस्सा भी क्या?
किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन
फिर सपनीली उम्र आते-आते
सिमट जाना सारे सपनो का
इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के
अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग
या फिर केवल योग
कि देशभक्ति नौकरी की मजबूरी थी
और नौकरी जिंदगी की
इसीलिये
भरती की भगदड़ में दब जाना
महज हादसा है
और फंस जाना बारूदी सुरंगो में
शहादत!
बचपन में कुत्तों के डर से
रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त
आठ को मार कर मरा था
बारह दुशमनों के बीच फंसे आदमी के पास
बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है?
वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ
जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त
दरअसल उस दिन
अखबारों के पहले पन्ने पर
दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था
और उसी दिन ठीक उसी वक्त
देश के सबसे तेज चैनल पर
चल रही थी
क्रिकेट के दोस्ताना संघर्षों पर चर्चा
एक दूसरे चैनल पर
दोनों देशों के मशहूर शायर
एक सी भाषा में कह रहे थे
लगभग एक सी गजलें
तीसरे पर छूट रहे थे
हंसी के बेतहाशा फव्वारे
सीमाओं को तोड़कर
और तीनों पर अनवरत प्रवाहित
सैकड़ों नियमित खबरों की भीड़ मे
दबी थीं
अलग-अलग वर्दियों में
एक ही कंपनी की गोलियों से बिंधी
नौ बेनाम लाशों
अजीब खेल है
कि वजीरों की दोस्ती
प्यादों की लाशों पर पनपती है
और
जंग तो जंग
शांति भी लहू पीती है!
-अशोक कुमार पाण्डेय
This blog is dedicated to hindi poetry of old as well as new poets. गीत जब मर जायेंगे तो क्या यहाँ रह जायेगा, एक सिसकता आँसुओं का कारवाँ रह जायेगा....
Pages
▼
Monday, October 31, 2011
Saturday, October 29, 2011
जो तुम आ जाते एक बार
जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग;
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग;
आँसू लेते वे पथ पखार|
हंस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद,
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग;
आँखें देतीं सर्वस्व वार|
-महादेवी वर्मा
कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग;
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग;
आँसू लेते वे पथ पखार|
हंस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद,
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग;
आँखें देतीं सर्वस्व वार|
-महादेवी वर्मा
Thursday, October 27, 2011
शाकाहार
गर्व था भारत-भूमि को के ऋषभदेव-महावीर की माता हूँ।
राम-कृष्ण और नानक जैसे वीरो की यशगाथा हूँ॥
कंद-मूल खाने वालों से मांसाहारी डरते थे।
‘पोरस’ जैसे शूर-वीर को नमन ‘सिकंदर’ करते थे॥
चौदह वर्षों तक खूखारी वन में जिसका धाम था।
मन-मन्दिर में बसने वाला शाकाहारी राम था॥
चाहते तो खा सकते थे वो मांस पशु के ढेरो में।
लेकिन उनको प्यार मिला ‘शबरी’ के झूठे बेरो में॥
माखन चोर मुरारी थे।
शत्रु को चिंगारी थे॥
चक्र सुदर्शन धारी थे।
गोवर्धन पर भारी थे॥
मुरली से वश करने वाले ‘गिरधर’ शाकाहारी थे॥
करते हो तुम बातें कैसे ‘मस्जिद-मन्दिर-राम’ की?
मांसाहारी बनकर लाज लूटली ‘पैगम्बर’ के पैगाम की॥
पर-सेवा पर-प्रेम का परचम चोटी पर फहराया था।
निर्धन की कुटिया में जाकर जिसने मान बढाया था॥
सपने जिसने देखे थे मानवता के विस्तार के।
नानक जैसे महा-संत थे वाचक शाकाहार के॥
उठो जरा तुम पढ़ कर देखो गौरवमयी इतिहास को।
आदम से गाँधी तक फैले इस नीले आकाश को॥
प्रेम-त्याग और दया-भाव की फसल जहाँ पर उगती है।
सोने की चिड़िया, न लहू में सना बाजरा चुगती है॥
दया की आँखे खोल देख लो पशु के करुण क्रंदन को।
इंसानों का जिस्म बना है शाकाहारी भोजन को॥
अंग लाश के खा जाए क्या फ़िर भी वो इंसान है?
पेट तुम्हारा मुर्दाघर है या कोई कब्रिस्तान है?
आँखे कितना रोती हैं जब उंगली अपनी जलती है।
सोचो उस तड़पन की हद जब जिस्म पे आरी चलती है॥
बेबसता तुम पशु की देखो बचने के आसार नहीं
जीते जी तन कटा जाए, उस पीड़ा का पार नही॥
खाने से पहले बिरयानी, चीख जीव की सुन लेते ।
करुणा के वश होकर तुम भी गिरि-गिरनार को चुन लेते॥
-सौरभ सुमन
(जैनमंच.कॉम से उद्धृत)
Tuesday, October 25, 2011
मंगलमय फुलझरियाँ छूटें
दीपावलि की सघन अमा में
घर आँगन और दिशा दिशा में
अंतस की हर गहन गुफ़ा से
खुशियों के स्वर फूटें
मंगलमय फुलझरियाँ छूटें
सजें मुँडेरें दीपदान से
हर आँगन हल्दी औ धान से
लक्ष्मी चरण चिह्न दरवाज़े
सभी अपशकुन टूटें
मंगलमय फुलझरियाँ छूटें
नव संवत नव लोक नई ऋतु
सखा बंधु परिवार मात-पितु
सुख समृद्धि सुशोभित जन-गण
पुण्य अनगिनत लूटें
मंगलमय फुलझरियाँ छूटें
-पूर्णिमा वर्मन
घर आँगन और दिशा दिशा में
अंतस की हर गहन गुफ़ा से
खुशियों के स्वर फूटें
मंगलमय फुलझरियाँ छूटें
सजें मुँडेरें दीपदान से
हर आँगन हल्दी औ धान से
लक्ष्मी चरण चिह्न दरवाज़े
सभी अपशकुन टूटें
मंगलमय फुलझरियाँ छूटें
नव संवत नव लोक नई ऋतु
सखा बंधु परिवार मात-पितु
सुख समृद्धि सुशोभित जन-गण
पुण्य अनगिनत लूटें
मंगलमय फुलझरियाँ छूटें
-पूर्णिमा वर्मन
Monday, October 24, 2011
मेरे दीपक
मेरे दीपक
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल;
प्रियतम का पथ आलोकित कर!
सौरभ फैला विपुल धूप बन, मृदुल मोम-सा घुल रे मृदु तन,
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित, तेरे जीवन का अणु गल-गल!
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!
सारे शीतल कोमल नूतन, माँग रहे तुझसे ज्वाला-कण;
विश्वशलभ सिर धुन कहता मैं हाय न जल पाया तुझमें मिल!
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!
जलते नभ में देख असंख्यक, स्नेहहीन नित कितने दीपक;
जलमय सागर का उर जलता, विद्युत ले घिरता है बादल!
विहँस-विहँस मेरे दीपक जल!
द्रुम के अंग हरित कोमलतम, ज्वाला को करते हृदयंगम;
वसुधा के जड़ अंतर में भी, बंदी है तापों की हलचल!
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!
मेरे निश्वासों से दुततर, सुभग न तू बुझने का भय कर,
मैं अँचल की ओट किए हूँ, अपनी मृदु पलकों से चंचल!
सहज-सहज मेरे दीपक जल!
सीमा ही लघुता का बंधन, है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन,
मैं दृग के अक्षय कोशों से तुझमें भरती हूँ आँसू-जल!
सजल-सजल मेरे दीपक जल!
तम असीम तेरा प्रकाश चिर, खेलेंगे नव खेल निरंतर,
तम के अणु-अणु में विद्युत-सा अमिट चित्र अंकित करता चल!
सरल-सरल मेरे दीपक जल!
तू जल जल होता जितना क्षय, वह समीप आता छलनामय,
मधुर मिलन में मिट जाना तू उसकी उज्जवल स्मित में घुल-खिल!
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल!
-महादेवी वर्मा
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल;
प्रियतम का पथ आलोकित कर!
सौरभ फैला विपुल धूप बन, मृदुल मोम-सा घुल रे मृदु तन,
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित, तेरे जीवन का अणु गल-गल!
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!
सारे शीतल कोमल नूतन, माँग रहे तुझसे ज्वाला-कण;
विश्वशलभ सिर धुन कहता मैं हाय न जल पाया तुझमें मिल!
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!
जलते नभ में देख असंख्यक, स्नेहहीन नित कितने दीपक;
जलमय सागर का उर जलता, विद्युत ले घिरता है बादल!
विहँस-विहँस मेरे दीपक जल!
द्रुम के अंग हरित कोमलतम, ज्वाला को करते हृदयंगम;
वसुधा के जड़ अंतर में भी, बंदी है तापों की हलचल!
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!
मेरे निश्वासों से दुततर, सुभग न तू बुझने का भय कर,
मैं अँचल की ओट किए हूँ, अपनी मृदु पलकों से चंचल!
सहज-सहज मेरे दीपक जल!
सीमा ही लघुता का बंधन, है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन,
मैं दृग के अक्षय कोशों से तुझमें भरती हूँ आँसू-जल!
सजल-सजल मेरे दीपक जल!
तम असीम तेरा प्रकाश चिर, खेलेंगे नव खेल निरंतर,
तम के अणु-अणु में विद्युत-सा अमिट चित्र अंकित करता चल!
सरल-सरल मेरे दीपक जल!
तू जल जल होता जितना क्षय, वह समीप आता छलनामय,
मधुर मिलन में मिट जाना तू उसकी उज्जवल स्मित में घुल-खिल!
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल!
-महादेवी वर्मा
Friday, October 21, 2011
मेरी ज़िद
तेरी कोशिश, चुप हो जाना,
मेरी ज़िद है, शंख बजाना ...
ये जो सोये, उनकी नीदें
सीमा से भी ज्यादा गहरी
अब तक जाग नहीं पाये वे
सर तक है आ गई दुपहरी;
कब से उन्हें, पुकार रहा हूँ
तुम भी कुछ, आवाज़ मिलाना...
तट की घेराबंदी करके
बैठे हैं सारे के सारे,
कोई मछली छूट न जाये
इसी दाँव में हैं मछुआरे.....
मैं उनको ललकार रहा हूँ,
तुम जल्दी से जाल हटाना.....
ये जो गलत दिशा अनुगामी
दौड़ रहे हैं, अंधी दौड़ें,
अच्छा हो कि हिम्मत करके
हम इनकी हठधर्मी तोड़ें.....
मैं आगे से रोक रहा हूँ -
तुम पीछे से हाँक लगाना ....
- कृष्ण वक्षी
Tuesday, October 18, 2011
उदास न हो
मेरे नदीम मेरे हमसफर, उदास न हो।
कठिन सही तेरी मंज़िल, मगर उदास न हो।
कदम कदम पे चट्टानें खड़ी रहें, लेकिन
जो चल निकलते हैं दरिया तो फिर नहीं रुकते।
हवाएँ कितना भी टकराएँ आंधियाँ बनकर,
मगर घटाओं के परछम कभी नहीं झुकते।
मेरे नदीम मेरे हमसफर .....
हर एक तलाश के रास्ते में मुश्किलें हैं, मगर
हर एक तलाश मुरादों के रंग लाती है।
हज़ारों चांद सितारों का खून होता है
तब एक सुबह फिज़ाओं पे मुस्कुराती है।
मेरे नदीम मेरे हमसफर ....
जो अपने खून को पानी बना नहीं सकते
वो ज़िन्दगी में नया रंग ला नहीं सकते।
जो रास्ते के अन्धेरों से हार जाते हैं
वो मंज़िलों के उजालों को पा नहीं सकते।
मेरे नदीम मेरे हमसफर, उदास न हो।
कठिन सही तेरी मंज़िल, मगर उदास न हो।
- साहिर लुधियानवी
कठिन सही तेरी मंज़िल, मगर उदास न हो।
कदम कदम पे चट्टानें खड़ी रहें, लेकिन
जो चल निकलते हैं दरिया तो फिर नहीं रुकते।
हवाएँ कितना भी टकराएँ आंधियाँ बनकर,
मगर घटाओं के परछम कभी नहीं झुकते।
मेरे नदीम मेरे हमसफर .....
हर एक तलाश के रास्ते में मुश्किलें हैं, मगर
हर एक तलाश मुरादों के रंग लाती है।
हज़ारों चांद सितारों का खून होता है
तब एक सुबह फिज़ाओं पे मुस्कुराती है।
मेरे नदीम मेरे हमसफर ....
जो अपने खून को पानी बना नहीं सकते
वो ज़िन्दगी में नया रंग ला नहीं सकते।
जो रास्ते के अन्धेरों से हार जाते हैं
वो मंज़िलों के उजालों को पा नहीं सकते।
मेरे नदीम मेरे हमसफर, उदास न हो।
कठिन सही तेरी मंज़िल, मगर उदास न हो।
- साहिर लुधियानवी
Saturday, October 15, 2011
थाल पूजा का लेकर चले आइये
थाल पूजा का लेकर चले आइये , मन्दिरों की बनावट सा घर है मेरा।
आरती बन के गूँजो दिशाओं में तुम और पावन सा कर दो शहर ये मेरा।
दिल की धडकन के स्वर जब तुम्हारे हुये
बाँसुरी को चुराने से क्या फायदा,
बिन बुलाये ही हम पास बैठे यहाँ
फिर ये पायल बजाने से क्या फायदा,
डगमगाते डगों से न नापो डगर , देखिये बहुत नाज़ुक जिगर है मेरा।
झील सा मेरा मन एक हलचल भरी
नाव जीवन की इसमें बहा दीजिये,
घर के गमलों में जो नागफनियां लगीं
फेंकिये रात रानी लगा लीजिये,
जुगनुओ तुम दिखा दो मुझे रास्ता, रात काली है लम्बा सफर है मेरा।
जो भी कहना है कह दीजिये बे हिचक
उँगलियों से न यूँ उँगलियाँ मोडिये,
तुम हो कोमल सुकोमल तुम्हारा हृदय
पत्थरों को न यूँ कांच से तोडिये,
कल थे हम तुम जो अब हमसफर बन गये, आइये आइये घर इधर है मेरा।
- डा. विष्णु सक्सेना
आरती बन के गूँजो दिशाओं में तुम और पावन सा कर दो शहर ये मेरा।
दिल की धडकन के स्वर जब तुम्हारे हुये
बाँसुरी को चुराने से क्या फायदा,
बिन बुलाये ही हम पास बैठे यहाँ
फिर ये पायल बजाने से क्या फायदा,
डगमगाते डगों से न नापो डगर , देखिये बहुत नाज़ुक जिगर है मेरा।
झील सा मेरा मन एक हलचल भरी
नाव जीवन की इसमें बहा दीजिये,
घर के गमलों में जो नागफनियां लगीं
फेंकिये रात रानी लगा लीजिये,
जुगनुओ तुम दिखा दो मुझे रास्ता, रात काली है लम्बा सफर है मेरा।
जो भी कहना है कह दीजिये बे हिचक
उँगलियों से न यूँ उँगलियाँ मोडिये,
तुम हो कोमल सुकोमल तुम्हारा हृदय
पत्थरों को न यूँ कांच से तोडिये,
कल थे हम तुम जो अब हमसफर बन गये, आइये आइये घर इधर है मेरा।
- डा. विष्णु सक्सेना
Wednesday, October 12, 2011
आशा कम विश्वास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।
सहसा भूली याद तुम्हारी उर में आग लगा जाती है
विरह-ताप भी मधुर मिलन के सोये मेघ जगा जाती है,
मुझको आग और पानी में रहने का अभ्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।
धन्य-धन्य मेरी लघुता को, जिसने तुम्हें महान बनाया,
धन्य तुम्हारी स्नेह-कृपणता, जिसने मुझे उदार बनाया,
मेरी अन्धभक्ति को केवल इतना मन्द प्रकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।
अगणित शलभों के दल के दल एक ज्योति पर जल-जल मरते
एक बूँद की अभिलाषा में कोटि-कोटि चातक तप करते,
शशि के पास सुधा थोड़ी है पर चकोर की प्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।
मैंने आँखें खोल देख ली है नादानी उन्मादों की
मैंने सुनी और समझी है कठिन कहानी अवसादों की,
फिर भी जीवन के पृष्ठों में पढ़ने को इतिहास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।
ओ ! जीवन के थके पखेरू, बढ़े चलो हिम्मत मत हारो,
पंखों में भविष्य बंदी है मत अतीत की ओर निहारो,
क्या चिंता धरती यदि छूटी उड़ने को आकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।
-बलबीर सिंह 'रंग'
सहसा भूली याद तुम्हारी उर में आग लगा जाती है
विरह-ताप भी मधुर मिलन के सोये मेघ जगा जाती है,
मुझको आग और पानी में रहने का अभ्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।
धन्य-धन्य मेरी लघुता को, जिसने तुम्हें महान बनाया,
धन्य तुम्हारी स्नेह-कृपणता, जिसने मुझे उदार बनाया,
मेरी अन्धभक्ति को केवल इतना मन्द प्रकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।
अगणित शलभों के दल के दल एक ज्योति पर जल-जल मरते
एक बूँद की अभिलाषा में कोटि-कोटि चातक तप करते,
शशि के पास सुधा थोड़ी है पर चकोर की प्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।
मैंने आँखें खोल देख ली है नादानी उन्मादों की
मैंने सुनी और समझी है कठिन कहानी अवसादों की,
फिर भी जीवन के पृष्ठों में पढ़ने को इतिहास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।
ओ ! जीवन के थके पखेरू, बढ़े चलो हिम्मत मत हारो,
पंखों में भविष्य बंदी है मत अतीत की ओर निहारो,
क्या चिंता धरती यदि छूटी उड़ने को आकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।
-बलबीर सिंह 'रंग'
Friday, October 7, 2011
वे घड़ियां
क्या इनका कोई अर्थ नहीं
ये शामें, सब की शामें ...
जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया
जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया
जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में
ये शामें
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
वे लमहें
वे सूनेपन के लमहें
जब मैनें अपनी परछाई से बातें की
दुख से वे सारी वीणाएं फेकीं
जिनमें अब कोई भी स्वर न रहे
वे लमहें
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
वे घड़ियां, वे बेहद भारी-भारी घड़ियां
जब मुझको फिर एहसास हुआ
अर्पित होने के अतिरिक्त कोई राह नहीं
जब मैंने झुककर फिर माथे से पंथ छुआ
फिर बीनी गत-पाग-नूपुर की मणियां
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
ये घड़ियां, ये शामें, ये लमहें
जो मन पर कोहरे से जमे रहे
निर्मित होने के क्रम में
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं
अर्पित है पूजा के फूलों-सा जिसका मन
अनजाने दुख कर जाता उसका परिमार्जन
अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को
नत-मस्तक होकर वह कर लेता सहज ग्रहण
वे सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियां
यह पीड़ा, यह कुण्ठा, ये शामें, ये घड़ियां
इनमें से क्या है
जिनका कोई अर्थ नहीं !
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं !
-धर्मवीर भारती
Wednesday, October 5, 2011
विजयदशमी की शुभकामनाएँ
छाया था आतंक हर तरफ़ रावण का साया था
जिसकी काली करतूतों ने सबको भरमाया था
अपने मद में चूर भंग अनुशासन करता था
उड़ता था आकाश दूसरों पर शासन करता था
मनमानी में भूल गया अन्याय न्याय की रेखा
सीता को हर ले जाने का परिणाम ना देखा
सोचा नहीं राम से भिड़ना जीवन घातक होगा
अहंकार जिस बल पर उसका खुद ही नाशक होगा
घटा महासंग्राम युद्ध में रावण का संहार हुआ
हुई अधर्म की हार धर्म का स्थापित संसार हुआ
सच है जग में अंत बुराई का एक दिन होना है
सच्चाई पर चलने वाला राम विजित होना है
हर विजयादशमी के दिन एक रावण जल जाता है
हर दशहरे पर राम विजय का हर्ष उभर आता है
यही कामना रावण का हो अंत राम की विजय
करें सभी जयघोष - सियावर रामचंद्र की जय!
-पूर्णिमा वर्मन
Sunday, October 2, 2011
गाँधी
देश में जिधर भी जाता हूँ,
उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ
"जडता को तोडने के लिए
भूकम्प लाओ।
घुप्प अँधेरे में फिर
अपनी मशाल जलाओ।
पूरे पहाड हथेली पर उठाकर
पवनकुमार के समान तरजो।
कोई तूफान उठाने को
कवि, गरजो, गरजो, गरजो !"
सोचता हूँ, मैं कब गरजा था?
जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,
वह असल में गाँधी का था,
उस गाँधी का था, जिस ने हमें जन्म दिया था।
तब भी हम ने गाँधी के
तूफान को ही देखा,
गाँधी को नहीं।
वे तूफान और गर्जन के
पीछे बसते थे।
सच तो यह है
कि अपनी लीला में
तूफान और गर्जन को
शामिल होते देख
वे हँसते थे।
तूफान मोटी नहीं,
महीन आवाज से उठता है।
वह आवाज
जो मोम के दीप के समान
एकान्त में जलती है,
और बाज नहीं,
कबूतर के चाल से चलती है।
गाँधी तूफान के पिता
और बाजों के भी बाज थे।
क्योंकि वे नीरवताकी आवाज थे।
-रामधारी सिंह "दिनकर"
उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ
"जडता को तोडने के लिए
भूकम्प लाओ।
घुप्प अँधेरे में फिर
अपनी मशाल जलाओ।
पूरे पहाड हथेली पर उठाकर
पवनकुमार के समान तरजो।
कोई तूफान उठाने को
कवि, गरजो, गरजो, गरजो !"
सोचता हूँ, मैं कब गरजा था?
जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,
वह असल में गाँधी का था,
उस गाँधी का था, जिस ने हमें जन्म दिया था।
तब भी हम ने गाँधी के
तूफान को ही देखा,
गाँधी को नहीं।
वे तूफान और गर्जन के
पीछे बसते थे।
सच तो यह है
कि अपनी लीला में
तूफान और गर्जन को
शामिल होते देख
वे हँसते थे।
तूफान मोटी नहीं,
महीन आवाज से उठता है।
वह आवाज
जो मोम के दीप के समान
एकान्त में जलती है,
और बाज नहीं,
कबूतर के चाल से चलती है।
गाँधी तूफान के पिता
और बाजों के भी बाज थे।
क्योंकि वे नीरवताकी आवाज थे।
-रामधारी सिंह "दिनकर"