अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं
खो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका
देखा जग ने टोपी बदली
तो मन बदला, महिमा बदली
पर ध्वजा बदलने से न यहाँ
मन-मंदिर की प्रतिमा बदली
मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई
धो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका
हड़ताल, जुलूस, सभा, भाषण
चल दिए तमाशे बन-बनके
पलकों की शीतल छाया में
मैं पुनः चला मन का बन के
जो चाहा करता चला सदा प्रस्तावों को मैं
ढो न सका
चाहे जिस दल में मैं जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका
दीवारों के प्रस्तावक थे
पर दीवारों से घिरते थे
व्यापारी की ज़ंजीरों से
आज़ाद बने वे फिरते थे
ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुखशय्या पर भी
सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका
-गोपाल सिंह नेपाली
मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई
ReplyDeleteधो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका
good collection...!
thanx..!
दीवारों के प्रस्तावक थे
ReplyDeleteपर दीवारों से घिरते थे
व्यापारी की ज़ंजीरों से
आज़ाद बने वे फिरते थे
ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुखशय्या पर भी
सो न सका
परिवेश की श्रृंगारमय कविता.
shandar yaar
ReplyDeleteयह कविता आज भी प्रासंगिक है।
ReplyDeleteभाई विवेक जैन जी आप बहुत नेक काम कर रहें हैं .आज आपने गोपाल सिंह नेपाली को भोई सुनवा दिया ."मेरी "दुल्हन सी रातों को नौ लाख सितारों ने लूटा "हमारा एक संगी गाता था .वह दौर अन्ताक्षरी (साहित्यिक ) प्रतियोगिता का था .गोपाल सिंह नेपाली का यह गीत आज भी गुनगुना तें हैं ।
ReplyDeleteमेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई धौ न सका ,
चाहे जिस दल में मिल जाऊं ,इतना सस्ता में हो न सका .
ये लोग तो हमारी थाती हैं धरोहर हैं .ज़रा संभाल के भाई .और दोस्त "अब जाने दो सर "वाली कोई बात न थी .देश का संत पिटे और लादेन ,लादेन जी कहलाये तो दुःख तो होता है .कहीं तो फूटेगा छाला उर का .
चाहे जिस दल में मैं जाऊँ इतना सस्ता
ReplyDeleteमैं हो न सका
this lines just bangs to your heart. It was a nice read.
waah....
ReplyDeleteगीतों को चुनना और प्रस्तुत करने ढंग दोनों अनोखे |
ReplyDeleteप्रस्तुत किये गए गीत अत्यंत चोखे ||
nice collection.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत खूब, मतवाले लोग ही इस दुनिया में नाम कमाते हैं।
ReplyDelete---------
ये शानदार मौका...
यहाँ खुदा है, वहाँ खुदा है...
'चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता मैं हो न सका'
ReplyDeleteये एक पंक्ति इस पूरी पोस्ट की जान है बहुत बहुत पसंद आई.....
एक अच्छी कविता को पढवाने के लिए धन्यवाद
ReplyDeletesamay samay par shreshth kaviyon ki rachnaon se parichay karane ke liye aabhaar !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और बेहतरीन रचना|
ReplyDeleteमेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई
ReplyDeleteधो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका.....बहुत सुन्दर प्रस्तुति
एक उम्दा कविता की प्रस्तुति । इनकी एक और कविता है
ReplyDelete""जीवन का परिचय पाता है कोई एक हजारों में ""। वैसे इनकी दो कवितायें ""मेरा धन है स्वाधीन कलम ""और ""नवीन कल्पना करो ""एक पत्रिका में भी प्रकाशित हुई थी । आपको धन्यवाद
बहुत आभार।
ReplyDeletebadhiya prastuti
ReplyDeleteबहुत अच्छा गीत एकदम सामयिक
ReplyDeleteआपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
चर्चा मंच{16-6-2011}
अच्छी मंशा ! कमसेकम दलबदलू तो नहीं ! अच्छा संग्रह !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आप सभी का,
ReplyDelete-विवेक जैन
हड़ताल, जुलूस, सभा, भाषण
ReplyDeleteचल दिए तमाशे बन-बनके
पलकों की शीतल छाया में
मैं पुनः चला मन का बन के
जो चाहा करता चला सदा प्रस्तावों को मैं
ढो न सका
चाहे जिस दल में मैं जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका.....
आज भी कितनी सटीक और समसामयिक है...उत्कृष्ट रचना पढवाने के लिये आभार..