सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में -
क्षात्र-धर्म के नाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
हुआ न यह भी भाग्य अभागा,
किसपर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा;
रहे स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते?
गये तरस ही खाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से?
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते-गाते?
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
-मैथिलीशरण गुप्त
nice sharing bro :)
ReplyDeleteगुप्तजी की ये बेहतरीन रचना पढ़ने का मौका देने के लिए आभार ..
ReplyDeleteगुप्त जी के इस अभिव्यति से प्रेरित हो बुद्ध और यशोधरा के बीच पत्राचार की विधा में उन प्रसंगों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. यह प्रस्तुति देखकर अपने उदगार रोक नहीं पाया. उस पत्र कस एक छोटा अंश जो इस सन्दर्भ से ही जुदा है प्रस्तुत कर रहा हूँ. शायद पाठकों को पसन् आये और मुझे नही एक सुझाव प्राप्त हो जाये....
ReplyDeleteहठ क्या कभी तोड़ा था मैंने?
क्या तुझे रोक लेती मैं? हे विराट!
देते अधिकार विदाई का जब,
गर्विता सा चमकते मेरे ललाट.
अब बन के कलंकिनी बैठी हूँ,
उजाले से भी अब डरती हूँ.
डर, जो वैरी है क्षत्राणी का,
हाय! अब गले लगा उसे बैठी हूँ.
मुह छिपा-छिपा मै चलती हूँ.
दिन - रात वेदना सहती हूँ.
लगे राजमहल यह सूना-सूना,
भूत का डेरा, फिर भी रहती हूँ.
हे नाथ! मुझे समझा अबला,
हूँ क्षत्राणी, मै भी सबला.
जीतूँ मो हर एक समर भूमि,
हो रण की भूमि या योग भूमि.
हे नाथ ! चाहती हूँ अवसर,
तुम्हे ख़ुशी-ख़ुशी मै विदा करूँ.
जो लालाट विधि ने लिखा,
सहर्ष सभी कुछ सहा करूँ.
मिटा दो दाग, कलंक ये मेरा,
हे नाथ! सविनय यह कहती हूँ.
निवेदन मान यदि जाओगे,
कर दूँगी क्षमा, सच कहती हूँ.
'यशोधरा का पत्र बुद्ध के नाम ' से संकलित
- डॉ जे पी तिवारी
बहुत सुंदर शब्दों में लिखी शानदार रचना /यशोधाराजी की ब्यथा को बहुत अच्छे से उजागर करती हुई गुप्तजी की बेहतरीन रचना /आपके द्वारा पढ़ने को मिली इसके लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद /
ReplyDeleteहार्दिक आभार ....
ReplyDeleteक्षत्रानियाँ, जब युद्ध के लिए सहर्ष भेज देतीं हैं...तो उन्हें ये अहसास होता है...कि विजयी हो कर वे वापस आयेंगे...पर गृहस्थ होते हुए किसी को वानप्रस्थ के लिए भेज देना शायद कठिन होता...इसीलिए बुद्ध बिना कहे निकल गये...
ReplyDeleteBahut acchhi rachna sir.. bahuit hi acchhe shabdon ka prayog kiya hai aapne... Aapko pahli baar padha.. Anand Aaya.. aapki aur bhi rachnayein bahut acchhi hain.. Aabhar..
ReplyDeleteपढ़वाने का आभार।
ReplyDeleteजैसे आज हिंदी फिल्मों की रिलीज के लिए बड़े निर्माता-निर्देशक प्रायः यह प्रयास करते हैं कि अमुक फिल्म से पहले मेरी फिल्म रिलीज हो जाय, वैसे ही कहते हैं कि जब मैथिलीशरण गुप्त जी कि 'साकेत' प्रकाशित हो रही थी उसी वक्त जयशंकर प्रसाद जी की 'कामायनी' भी प्रकाशनाधीन थी. अब आगे वही हुआ जो ऐसी स्थिति में फिल्मों की रिलीज में होता है......
ReplyDeleteकविता में उर्मिला का रोष है, जो वह अपनी सखियों के समक्ष रख रही है..... लक्ष्मण का बिना मिले वनवास चले जाना उसके लिए पीड़ादायक है....... बहुत अच्छी प्रस्तुति. साकेत की हर रचना मुझे भीतर तक भिगो देती है. बहुत बहुत आभार !
डॉक्टर जे0 पी0 तिवारी जी ने गुप्त जी की कविता से प्रेरित होकर उर्मिला की व्यथा को यशोधरा की पीड़ा के रूप में अभिव्यक्त किया है. बहुत ही सुन्दर प्रयास है. उनका भी आभार. ... वैसे मोहन राकेश ने 'लहरों के राजहंस' में यशोधरा की छटपटाहट को जिस रूप में व्यक्त किया है वह वर्णनातीत है.
nice collection
ReplyDeleteखुबसूरत कविता पढवाने के लिए धन्यवाद....
ReplyDeleteखुबसूरत कविता पढवाने के लिए धन्यवाद....
ReplyDeleteबहुत सुंदर....
ReplyDeleteखुबसूरत कविता पढवाने के लिए धन्यवाद..
ReplyDeleteआज मैथिलि शरण गुप्त जी के जन्म की १२५ वीं वर्षगाँठ है . इस राष्ट्र कवि को शत शत नमन !
ReplyDeleteसाथ ही उत्तम कविता चुन कर लाने के लिए आपका आभार !