Sunday, August 7, 2011

संकोच-भार को सह न सका


संकोच-भार को सह न सका
पुलकित प्राणों का कोमल स्वर
कह गए मौन असफलताओं को
प्रिय आज काँपते हुए अधर।

छिप सकी हृदय की आग कहीं?
छिप सका प्यार का पागलपन?
तुम व्यर्थ लाज की सीमा में
हो बाँध रही प्यासा जीवन।

तुम करुणा की जयमाल बनो,
मैं बनूँ विजय का आलिंगन
हम मदमातों की दुनिया में,
बस एक प्रेम का हो बन्धन।

आकुल नयनों में छलक पड़ा
जिस उत्सुकता का चंचल जल
कम्पन बन कर कह गई वही
तन्मयता की बेसुध हलचल।

तुम नव-कलिका-सी-सिहर उठीं
मधु की मादकता को छूकर
वह देखो अरुण कपोलों पर
अनुराग सिहरकर पड़ा बिखर।

तुम सुषमा की मुस्कान बनो
अनुभूति बनूँ मैं अति उज्जवल
तुम मुझ में अपनी छवि देखो,
मैं तुममें निज साधना अचल।

पल-भर की इस मधु-बेला को
युग में परिवर्तित तुम कर दो
अपना अक्षय अनुराग सुमुखि,
मेरे प्राणों में तुम भर दो।

तुम एक अमर सन्देश बनो,
मैं मन्त्र-मुग्ध-सा मौन रहूँ
तुम कौतूहल-सी मुसका दो,
जब मैं सुख-दुख की बात कहूँ।

तुम कल्याणी हो, शक्ति बनो
तोड़ो भव का भ्रम-जाल यहाँ
बहना है, बस बह चलो, अरे
है व्यर्थ पूछना किधर-कहाँ?

थोड़ा साहस, इतना कह दो
तुम प्रेम-लोक की रानी हो
जीवन के मौन रहस्यों की
तुम सुलझी हुई कहानी हो।

तुममें लय होने को उत्सुक
अभिलाषा उर में ठहरी है
बोलो ना, मेरे गायन की
तुममें ही तो स्वर-लहरी है।

होंठों पर हो मुस्कान तनिक
नयनों में कुछ-कुछ पानी हो
फिर धीरे से इतना कह दो
तुम मेरी ही दीवानी हो।
-भगवती चरण वर्मा

17 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

अच्छी रचना है!
--
मित्रता दिवस पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

प्रवीण पाण्डेय said...

तुम करुणा की जयमाल बनो,
मैं बनूँ विजय का आलिंगन
हम मदमातों की दुनिया में,
बस एक प्रेम का हो बन्धन।

प्रेरक और पूरक।

Vaanbhatt said...

सुन्दर प्रस्तुति...

Maheshwari kaneri said...

आकुल नयनों में छलक पड़ा
जिस उत्सुकता का चंचल जल
कम्पन बन कर कह गई वही
तन्मयता की बेसुध हलचल।
बहुत सुन्दर...आभार...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

भगवती चरण वर्मा जी की सुन्दर कृति पढवाने के लिए आभार

चंदन कुमार मिश्र said...

वाह! अच्छा काम कर रहे हैं आप। पुराने लोगों की रचनाएँ पढ़वा कर। लेकिन उपशीर्षक अंग्रेजी में अच्छा न लगा।

Apanatva said...

ise sunder lruti ko padvane ke liye dhanyvad .

virendra sharma said...

Monday, August 8, 2011
यारों सूरत हमारी पे मट जाओ .
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/2011/08/blog-post_8587.html
संकोच भार को सह न सका -नारी के कोमल मन की थाह लेती रचना ....
पल-भर की इस मधु-बेला को
युग में परिवर्तित तुम कर दो
अपना अक्षय अनुराग सुमुखि,
मेरे प्राणों में तुम भर दो।
और प्रेमी मन की आकुलता का सजीव दर्पण है यह कविता .

virendra sharma said...

...क्‍या भारतीयों तक पहुच सकेगी यह नई चेतना ?
Posted by veerubhai on Monday, August 8
Labels: -वीरेंद्र शर्मा(वीरुभाई), Bio Cremation, जैव शवदाह, पर्यावरण चेतना, बायो-क्रेमेशन /http://sb.samwaad.com/
छिप सकी हृदय की आग कहीं?
छिप सका प्यार का पागलपन?
तुम व्यर्थ लाज की सीमा में
हो बाँध रही प्यासा जीवन। जीवन के सारे बंध खोल देती है राग से संसिक्त .

vidhya said...

वाह बहुत ही सुन्दर
रचा है आप ने
क्या कहने ||
लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/

Unknown said...

भगवती चरण वर्मा जी की सुन्दर कृति पढवाने के लिए आभार

वीना श्रीवास्तव said...

अच्छी रचना पढ़वाने के लिए आभार...

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बेहतरीन रचना पढवाई....आभार

Urmi said...

बहुत सुन्दर रचना! इस लाजवाब रचना को पढ़वाने के लिए आभार!

amrendra "amar" said...

बहुत सुंदर रचना

Bharat Bhushan said...

जीवन के मौन रहस्यों की
तुम सुलझी हुई कहानी हो।
भगवती चरण वर्मा की ऐसी रोमानी कविता यहाँ देने के लिए आपका आभार. आपका ब्लॉग अच्छी कविताओं का कोष बन रहा है.

दिगम्बर नासवा said...

इस ओज़स्वी प्रवाहमयी रचना के लिए कोटि कोटि धन्यवाद ...