Monday, December 31, 2012

नए साल का शुभ दुलार

नई दिशा है नव विचार है
नए साल का खुला द्वार है


जीवन इस बगिया सा महके
राग रंग तितली सा चहके
सोपानों पर मिले सफलता
सब मंगल कामों में शुभता



नीड़ों में गुंजार रहे
सब अपनों में प्यार रहे
सुखद स्वप्न सब सच हो जाएँ
नए साल का सरोकार है


फूलों से शोभित पल-छिन
राह कभी न लगे कठिन
सुबह स्फूर्ति को लेकर आए
दिवस धूप से निखर नहाए


शामों को विश्राम सजाए
मित्रों को जलपान लुभाए
मनोकामनाएँ हों पूरी
नए साल का शुभ दुलार है


         - पूर्णिमा वर्मन

Saturday, December 29, 2012

चलो अकेले रे!

गर पुकार सुन कोई न आए
तब भी चलो अकेले रे
चलो अकेले! चलो अकेले! चलो अकेले
चलो अकेले रे


गर कोई भी करे न बातें
सुन ओ अरे अभागे
गर सब तुमसे मुख फेरे
हों कायर, भय जागे
लगा प्राण की बाजी तब तू
मुखर बनो, अपनी मन-कथा
कहो अकेले रे


यदि सारे फिर जाएँ तुमसे
सुन ओ अरे अभागे
जाते समय सघन पथ तुझको
कोई न मुड़के देखे
तब पथ के काँटों को अपने
रक्त सने चरणों के नीचे
दलो अकेले रे


गर ना हो आलोक कहीं भी
सुन ओ अरे अभागे
यदि अंधियारी रातों में
झंझावत का यम जागे
दरवाज़े हों बंद, जले वज्रानल तब तुम
अपना सीना-पंजर बालो
जलो अकेले रे!



           -रवींद्रनाथ टैगोर

Monday, December 24, 2012

क्रिसमस

छुटि्टयों का मौसम है
त्योहार की तैयारी है
रौशन हैं इमारतें
जैसे जन्नत पधारी है


कड़ाके की ठंड है
और बादल भी भारी है
बावजूद इसके लोगों में जोश है
और बच्चे मार रहे किलकारी हैं
यहाँ तक कि पतझड़ की पत्तियाँ भी
लग रही सबको प्यारी हैं
दे रहे हैं वो भी दान
जो धन के पुजारी हैं।


खुश हैं ख़रीदार
और व्यस्त व्यापारी हैं
खुशहाल हैं दोनों
जबकि दोनों ही उधारी हैं


भूल गई यीशु का जनम
ये दुनिया संसारी है
भाग रही है उसके पीछे
जिसे हो हो हो की बीमारी है


लाल सूट और सफ़ेद दाढ़ी
क्या शान से सँवारी है
मिलता है वो मॉल में
पक्का बाज़ारी है


बच्चे हैं उसके दीवाने
जैसे जादू की पिटारी है
झूम रहे हैं जम्हूरे वैसे
जैसे झूमता मदारी हैं


    -राहुल उपाध्याय

Saturday, December 22, 2012

इस पार - उस पार


इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में
कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरा-लहरा यह शाखाएँ
कुछ शोक भुला देतीं मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ
हँसकर कहती हैं, मग्न रहो,
बुलबुल तरू की फुनगी पर से
संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले
मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!


जग में रस की नदियाँ बहतीं,
रसना दो बूँदे पाती है,
जीवन की झिलमिल-सी झाँकी
नयनों के आगे आती है,
स्वर-तालमयी वीणा बजती,
मिलता है बस झंकार मुझे
मेरे सुमनों की गंध कहीं
यह वायु उड़ा ले जाती है,
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये,
ये साधन भी छिन जाएँगे,
तब मानव की चेतनता का
आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!


प्याला है पर पी पाएँगे,
है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है
असमर्थ बना कितना हमको,
कहनेवाले पर, कहते हैं
हम कर्मों से स्वाधीन सदा,
करनेवालों की परवशता
है ज्ञात किसे, जितनी हमको,
कह तो सकते हैं, कहकर ही
कुछ दिल हल्का कर लेते हैं;
उस पार अभागे मानव का
अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!


कुछ भी न किया था जब उसका,
उसने पथ में काँटे बोए,
वे भार दिए धर कन्धों पर
जो रो-रोकर हमने ढोए,
महलों के सपनों के भीतर
जर्जर खंडहर का सत्य भरा,
उस में ऐसी हलचल भर दी,
दो रात न हम सुख से सोए,
अब तो हम अपने जीवन भर
उस क्रूर कठिन को कोस चुके;
उस पार नियति का मानव से
व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!


संसृति के जीवन में, सुभगे
ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी,
जब दिनकर की तमहर किरणें
तम के अंदर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव, रजनी
तम की चादर से ढक देगी,
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी
कितने दिन खैर मनाएगी,
जब इस लम्बे-चौड़े जग का
अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनों का नन्हा-सा
संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!


ऐसा चिर पतझड़ आएगा
कोयल न कुहुक फिर पाएगी
बुलबुल न अंधेरे में गा-गा
जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर
'मरमर' न सुने फिर जाएँगे,
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन
करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का
अवसान, प्रिये, हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का
उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!


सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन
निर्झरिणी भूलेगी नर्तन
निर्झर भूलेगा निज टलमल,
सरिता अपना 'कलकल' गायन
वह गायक-नायक सिंधु कहीं
चुप हो छिप जाना चाहेगा,
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे
गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण,
संगीत सजीव हुआ जिनमें,
जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का
जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!


उतरे इन आँखों के आगे
जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, देखो, माली
सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी
ऊषा की सारी सिंदूरी,
पट इंद्रधनुष का सतरंगा
पाएगा कितने दिन रहने,
जब मूर्तिमती सत्ताओं की
शोभा-सुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का
शृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!


दृग देख जहाँ तक पाते हैं,
तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई
हम सब को खींच बुलाता है,
मैं आज चला, तुम आओगी
कल, परसों सब संगी-साथी,
दुनिया रोती-धोती रहती,
जिसको जाना है, जाता है,
मेरा तो होता मन डग-मग
तट पर के ही हलकोरों से,
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा
मंझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा!


    -हरिवंशराय बच्चन

Tuesday, December 18, 2012

कमल के बहाने

कैसे कह दूँ रूप तुम्हारा,
जैसे कोई खिला कमल है,
कैसे कह दूँ रंग तुम्हारा,
चाँदी-सा कोई चंद्रकमल है,
नीलकमल आँखें हैं तेरी,
रक्तकमल तेरा शृंगार,
कमलनाल की लोच लिए,
आमंत्रित करती हो अभिसार
गोधूलि -बेला में तेरे-
कर-कमलों में दीप सजे,
कमलपात पर किसी बूँद-सा,
ठिठका-सा एक स्वप्न- जगे

ये बिंब मेरे सब झूठ हुए-
ईंटों से बुनते शतदल में,
खो गई जागीर कमल की-
कंक्रीटों के जंगल में ।
कहाँ गए वो पोखर-गागर,
कहाँ गए वो ताल-तलैया,
मेढक-कछुए-झींगुर-जुगनू,
गिल्ली-डंडा, ता-ता-थैया,
घूँघट के कंज-पदों से मह-मह,
क्यों घाट सुहाने टूट गए?
चूड़ी से छुप चुगली करते,
मटके किससे फूट गए ?

अब धुँआ-धक्कीड़ शोर बहुत है,
बगुलों के ठिकानों पर,
मासूम मछलियाँ कैद हुई-
इन ऊँचे मकानों पर
जल रहा हरेक कमल है,
चुप है कोयल बागों में,
ये सब हमको दिखा करेंगे,
बच्चों की किताबों में

     - अमित कुलश्रेष्ठ

Friday, December 14, 2012

सर्द मौसम

दिन अंधेरा, रात काली
सर्द मौसम है

दहशतों की कैद में
लेकिन नहीं हम हैं!

नहीं गौरैया
यहाँ पाँखें खुजाती है
घोंसले में छिपी चिड़िया
थरथराती है

है यहाँ केवल अमावस
नहीं, पूनम है!

गूँजती शहनाइयों में
दब गईं चीखें
दिन नहीं बदले
बदलती रहीं तारीखें
हिल रही परछाइयों-सा
हिल रहा भ्रम है!

वनों को, वनपाखियों का
घर न होना है
मछलियों को ताल पर
निर्भर न होना है

दर्ज यह इतिहास में
हो रहा हरदम है!


      -नचिकेता


Tuesday, December 11, 2012

लेकिन मन आज़ाद नहीं है

तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है
सचमुच आज काट दी हमने
जंजीरें स्वदेश के तन की
बदल दिया इतिहास बदल दी
चाल समय की चाल पवन की

देख रहा है राम राज्य का
स्वप्न आज साकेत हमारा
खूनी कफन ओढ़ लेती है
लाश मगर दशरथ के प्रण की

मानव तो हो गया आज
आज़ाद दासता बंधन से पर
मज़हब के पोथों से ईश्वर का जीवन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है।

हम शोणित से सींच देश के
पतझर में बहार ले आए
खाद बना अपने तन की-
हमने नवयुग के फूल खिलाए

डाल डाल में हमने ही तो
अपनी बाहों का बल डाला
पात-पात पर हमने ही तो
श्रम जल के मोती बिखराए

कैद कफस सय्याद सभी से
बुलबुल आज स्वतंत्र हमारी
ऋतुओं के बंधन से लेकिन अभी चमन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है।

यद्यपि कर निर्माण रहे हम
एक नई नगरी तारों में
सीमित किन्तु हमारी पूजा
मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारों में

यद्यपि कहते आज कि हम सब
एक हमारा एक देश है
गूँज रहा है किन्तु घृणा का
तार बीन की झंकारों में

गंगा जमना के पानी में
घुली मिली ज़िन्दगी हमारी
मासूमों के गरम लहू से पर दामन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा लेकिन मन आज़ाद नहीं है।


-गोपाल दास नीरज