हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन?
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!
संग-सौध में हो श्रृंगार मरण का शोभन,
नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन?
मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति?
आत्मा का अपमान, प्रेत औ’ छाया से रति!!
प्रेम-अर्चना यही, करें हम मरण को वरण?
स्थापित कर कंकाल, भरें जीवन का प्रांगण?
शव को दें हम रूप, रंग, आदर मानन का
मानव को हम कुत्सित चित्र बना दें शव का?
गत-युग के बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर
मानव के मोहांध हृदय में किए हुए घर!
भूल गये हम जीवन का संदेश अनश्वर,
मृतकों के हैं मृतक, जीवतों का है ईश्वर!
- सुमित्रानंदन पंत
Tuesday, August 23, 2011
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9 comments:
पंतजी की श्रेष्ठ रचना पढ़ने का अवसर देने के लिए धन्यवाद ....
रूढ़िवादिता को दर्शाती पन्त जी की इस सुन्दर कविता के प्रकाशन के लिए आभार. आज व्यक्तिविशेष नहीं अपितु पूरे समाज में यह व्याधि व्याप्त है, माँ की मृत्यु पर मै इसी माह इस पोंगा पंथी की चपेट में आया हूँ...... गढ़वाल में एक कहावत प्रचलित है कि " जीते जी जिस अपने को हमने एक कटोरी मांड (चावल के पानी) के लिए रुलाया, मरने पर उसके श्राद्ध में खांड की बोरियां लुटा ली." ........
काश ! पाठक इस कविता का मर्म समझ पाते. पुनः आभार विवेक जी .
पन्त जी की एक सुन्दर रचना पढवाने के लिए आभर..
आपने पन्त जी की बहुत सुन्दर रचना लगाई है।
पन्त जी ने कितनी सार्थक बात कही है -जीवित जन तो भोजन विहीन ,वस्त्र विहीन रहें और मृत व्यक्ति के महिमा मंडन पर इतना खर्चा !सार्थक प्रस्तुति .आभार
BHARTIY NARI
अच्छी रचना पढ़वाने के लिए आभार...
भूल गये हम जीवन का संदेश अनश्वर,
मृतकों के हैं मृतक, जीवतों का है ईश्वर!
- सुमित्रानंदन पंत
बहुत बहुत आभार विवेक जी.ऐसी सुन्दर व् सामायिक प्रस्तुति के लिए.
बहुत बहुत आभार विवेक जी सुमित्रानंदन पंत जी की ऐसी सुन्दर व् सामायिक प्रस्तुति के लिए...
दर्शन से भरी सुन्दर रचना।
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