Friday, June 4, 2010

यही आता है इस मन में

यही आता है इस मन में,
छोड़ धाम-धन जाकर मैं भी रहूं उसी वन में।
प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूं रहूं निकट भी दूर,
व्यथा रहे, पर साथ साथ ही समाधान भरपमर।
हर्ष डूबा हो रोदन में,
यही आता है इस मन में।

बीच-बीच में उन्हें देख लूं मैं झुरमुट की ओट,
जब वे निकल जाय तब लेटूं उसी धूल में लोट।
रहें रत वे निज जीवन में,
यही आता है इस मन में।

आती जाती, गाती गाती, कह जाऊं यह बात-
धन के पीछे जन, जगती में उचित नहीं उत्पात।
प्रेम की ही जय जीवन में,
यही आता है इस मन में।
- मैथिली शरण गुप्त

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