Thursday, July 1, 2010

इतने ऊँचे उठो

इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।
देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से
सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से
जाति भेद की, धर्म-वेश की
काले गोरे रंग-द्वेष की
ज्वालाओं से जलते जग में
इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥

नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो
नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो
नये राग को नूतन स्वर दो
भाषा को नूतन अक्षर दो
युग की नयी मूर्ति-रचना में
इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥

लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है
जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है
तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन
गति, जीवन का सत्य चिरन्तन
धारा के शाश्वत प्रवाह में
इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है।

चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना
अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना
सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे
सब हैं प्रतिपल साथ हमारे
दो कुरूप को रूप सलोना
इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥

- द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

9 comments:

Anonymous said...

लिखते रहिये,सानदार प्रस्तुती के लिऐ आपका आभार


सुप्रसिद्ध साहित्यकार व ब्लागर गिरीश पंकज जीका इंटरव्यू पढने के लिऐयहाँ क्लिक करेँ >>>>
एक बार अवश्य पढेँ

Vivek Jain said...

thanks for comment

Alpana Verma said...

कवि द्वारिका प्रसाद जी की यह कविता प्रेरणादायक है .
आप की पसदं लाजवाब है.
बहुत अच्छी कविता पढवाने के लिए आप का आभार.

सूबेदार said...

चयन बहुत अच्छा है
देश भक्ति से ऊपर कुछ नहीं.

राजेश उत्‍साही said...

विवेक जी, आपका यह चयन बहुत अच्‍छा है। माहेश्‍वरी जी की कविता पर सवाल उठाना सूरज को दिया दिखाने जैसा है। निश्चित तौर पर यह कविता अब से लगभग 40 साल पुरानी है। उस समय इस तरह की कविताओं की बहुत आवश्‍यकता भी थी। लेकिन खेद का विषय यह है कि हमारी पीढ़ी(कम से कम मेरी पीढ़ी) इनसे प्रेरणा नहीं ले पाई। अगर लेती तो शायद हम और हमारा देश किसी और जगह होता। विडम्‍बना यह भी है कि आज के संदर्भ में ऐसी कविताएं नारे या उपदेश से अधिक प्रभाव पैदा नहीं कर पातीं।
इस कविता में भी कवि जब कहता है कि नये हाथ से । हाथ तो नया नहीं हो सकता हां भाव नया होगा,विचार नया होगा। इसी तरह हमें पता ही नहीं है कि स्‍वर्ग है या नहीं,तो फिर हम धरती को स्‍वर्ग बनाएंगे कैसे,किस आधार पर।
वैसे शलभश्रीरामसिंह ने अपने एक मशहूर गीत में यही बात कही है पर चुनौती के रूप में-
तू जिंदा है,तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर,

अगर कहीं है स्‍वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर।
आपको आभार कि आपने इस कविता के बहाने इस संवाद का मौका दिया।
शुभकामनाएं।

mridula pradhan said...

bahut achchi rachna.

स्वाति said...

कविता बहुत अच्छी-प्रेरणादायक है .

पढवाने के लिए आप का आभार..

arvind said...

जाति भेद की, धर्म-वेश की
काले गोरे रंग-द्वेष की
ज्वालाओं से जलते जग में
इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥
..bahut sundar kavita. shanadaar prastuti ke liye badhaai.

The Straight path said...

कविता बहुत अच्छी