Tuesday, August 30, 2011

जितना नूतन प्यार तुम्हारा

जितना नूतन प्यार तुम्हारा
उतनी मेरी व्यथा पुरानी
एक साथ कैसे निभ पाये
सूना द्वार और अगवानी।

तुमने जितनी संज्ञाओं से
मेरा नामकरण कर डाला
मैंनें उनको गूँथ-गूँथ कर
सांसों की अर्पण की माला
जितना तीखा व्यंग तुम्हारा
उतना मेरा अंतर मानी
एक साथ कैसे रह पाये
मन में आग, नयन में पानी।

कभी कभी मुस्काने वाले
फूल-शूल बन जाया करते
लहरों पर तिरने वाले मंझधार
कूल बन जाया करते
जितना गुंजित राग तुम्हारा
उतना मेरा दर्द मुखर है
एक साथ कैसे रह पाये
मन में मौन, अधर पर वाणी।

सत्य सत्य है किंतु स्वप्न में-
भी कोई जीवन होता है
स्वप्न अगर छलना है तो
सत का संबल भी जल होता है
जितनी दूर तुम्हारी मंजिल
उतनी मेरी राह अजानी
एक साथ कैसे रह पाये
कवि का गीत, संत की बानी।
-स्नेहलता स्नेह

10 comments:

Unknown said...

बेहद सुन्दर काव्य प्रस्तुत किया है आपने , आपके प्रयाश सार्थक हैं अच्छे साहित्य प्रस्तुत करने के प्रति बधाई

Shalini kaushik said...

कभी कभी मुस्काने वाले
फूल-शूल बन जाया करते
लहरों पर तिरने वाले मंझधार
कूल बन जाया करते
स्नेहलता स्नेह की ये कविता बहुत अच्छी लगी.सार्थक प्रस्तुति.बधाई .

प्रवीण पाण्डेय said...

सुन्दर काव्य रचना।

रेखा said...

बहुत सुन्दर रचना ...

Vivek Jain said...

बहुत बहुत धन्यवाद,
-विवेक जैन

शिखा कौशिक said...

very nice .i think this website can help you in your work-

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ZEAL said...

good job..keep it up

मनोज कुमार said...

अच्छी लगी यह रचना।

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर रचना पढवाने के लिए आभार..

Urmi said...

बहुत सुन्दर और लाजवाब रचना !
आपको एवं आपके परिवार को ईद और गणेश चतुर्थी की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें !