Thursday, June 2, 2011

तूफ़ानों की ओर

तूफ़ानों की ओर
घुमा दो
नाविक!
निज पतवार!
आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है

आज हृदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफ़ानों की ओर
घुमा दो
नाविक!
निज पतवार!

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड़ में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफ़ानों का प्यार
तूफ़ानों की ओर
घुमा दो
नाविक!
निज पतवार!

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहिचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी न मानी हार
तूफ़ानों की ओर
घुमा दो
नाविक!
निज पतवार!

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है

इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफ़ानों की ओर
घुमा दो
नाविक!
निज पतवार!

('प्रलय-सृजन' से)
-शिवमंगल सिंह 'सुमन'

23 comments:

Shalini kaushik said...

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड़ में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफ़ानों का प्यार
तूफ़ानों की ओर
घुमा दो
नाविक!
निज पतवार
shiv mangal ji kee kavya pratibha se aparichit nahi hain kintu kavya ka itna sundar sankalan hamare pas nahi hai.aapne ye kami bhi poori kar di aabhar vivek ji.

ज्योति सिंह said...

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहिचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी न मानी हार
तूफ़ानों की ओर
घुमा दो
नाविक!
निज पतवार!
behad khoobsurat rachna hai man ko chhoo gayi

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!

प्रवीण पाण्डेय said...

सुन्दर पंक्तियाँ पढ़वाने का आभार।

prerna argal said...

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहिचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी न मानी हार
तूफ़ानों की ओर
घुमा दो
नाविक!
निज पतवार!bahut sunder shabdon main saarthak rachanaa.badhaai aapko.


please visit my blog.thanks

पी.एस .भाकुनी said...

आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ , बहुत अच्छा लगा आपका यह प्रयास ,कृपया जारी रखियेगा ,आभार ............

prerna argal said...

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहिचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी न मानी हार
तूफ़ानों की ओर
घुमा दो
नाविक!
निज पतवार!bahut saarthk rachanaa.badhaai.


please visit my blog.thanks

Urmi said...

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड़ में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफ़ानों का प्यार
तूफ़ानों की ओर
घुमा दो
नाविक!
निज पतवार!
दिल को छू गयी ये पंक्तियाँ! बहुत ख़ूबसूरत रचना!

Jyoti Mishra said...

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है

beautiful lines showing the struggle of human being irrespective of situation.

संतोष त्रिवेदी said...

'सुमन' जी की ओजपूर्ण कविता पढाने का धन्यवाद !

मदन शर्मा said...

सुन्दर कविता के लिए धन्यवाद

डॉ. दलसिंगार यादव said...

जीवित मछलियाँ ही प्रवाह के विपरीत तैरने की हिम्मत रखती हैं। तूफ़ानों की और घुमा दो नाविक निज पतवार।--- अदम्य साहस का प्रतीक।
अच्छी और प्रेरक रचना।

पूनम श्रीवास्तव said...

bahut hi josh bhar dene wali-----
सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है

इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफ़ानों की ओर
घुमा दो
नाविक!
निज पतवार
kavivar shiv -mangal singh ko hardik abhinandan v aapko bahut bahut aabhar
poonam
ooj! se bhari purn sakar kavita---

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सुन्दर रचना पढ़वाने के लिए आभार!

daanish said...

Shivmanagal ji ki
yaadgaar rachnaa padhvaane ke liye
aabhaar svikaareiN...

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी रचना पढ़वाने का शुक्रिया।

honey sharma said...

सातों सागर पार
तूफ़ानों की ओर
घुमा दो
नाविक!
निज पतवार

रश्मि प्रभा... said...

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
chayan ka mamla itna aasaan nahin hota, usme bhi vyakti ke apne bhawon kee ahmiyat hoti hai... bahut hi achhi rachna ka chayan kiya

Anju (Anu) Chaudhary said...

bahut badiya...is kavita ko yaha rakhne ke liye

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

ये रचनाएं हमारी धरोहर हैं और आप इन्हें संजोए रखना का स्तुतीय कार्य कर रहे हैं। बधाई॥

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

और हां, यदि ये कविताएं कविताकोश में नहीं है तो इन्हें वहां पोस्ट कर दीजिए ताकि सारी सामग्री एक जगह संजोई जा सकें॥

Vivek Jain said...

आप सभी का बहुत बहुत आभार
-विवेक जैन

virendra sharma said...

शिव मंगल सिंह जी सुमन को एक मर्तबा तब सुनने का मौका मिला था जब मैं सागर विश्वविद्यालय में पढता था .पान को आपने राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बतलाया था .सुपारी असंम से ,लॉन्ग यहाँ से इलायची वहां से ,चूना यहाँ से पान का पत्ता महोबा से ...
आज उनकी कविता पढके मन अतीत में लौट गया -
आभार आपका विवेक जैन जी .