बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!
यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!
-सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
Wednesday, June 22, 2011
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु
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19 comments:
अपने श्रेष्ठ पूर्वज से,
क्षमा याचना सहित--
बाबा से करूँ ठिठोली आज |
पर आ जाती है थोड़ी लाज ||
बाबा क्या करने जाते थे-
ऐसा तो था नहीं समाज ||
घाट की महिमा है ज्यादा --
दादी पर या अधिक नाज |
बोलो बाबा अब बोलो न --
खोलो बाबा यह बंद राज ||
बहुत सुन्दर कविता, पढ़वाने का आभार।
is kavita ko main gaati rahi hun ...shuru ki do panktiyaan mujhe behad pasand hain
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!
bahut sunder kavita. padhaane ke liye aabhari hun.
निराला की सुन्दर रचना पढवाने के लिए धन्यवाद
-सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"जी की सुन्दर कविता, पढ़वाने का आभार।
आपका बहुत बहुत शुक्रिया। आपकी मेहनत के कारण ही इतने कालजयी लोगों की रचना पढ़ने को मिलती है।
shree suryakant tripathi ji ki vastav me nirali kavita prastut kee hai aapne vivek ji.aabhar.
बहुत सुन्दर और सशक्त रचना!
निराला जी को नमन!
महाप्राण निराला जी की सुन्दर रचना से रूबरू करवाने का आभार...
पता था यहाँ हर पल कुछ न कुछ नया घटित होता रहता है .कुछ लोग एक पोस्ट तीन तीन दिन लगाए रहतें हैं .यही सोचकर की कुछ शायद और आयें और आयें और आयें ।
महा -प्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला -पता नहीं सरोज स्मृति है या कुछ और लेकिन जो भी है बांधती है रोकती है मार्ग को .
निराला जी की यह रचना फिर से याद दिलाने का शुक्रिया आपका ब्लॉग साहित्य यात्रा पर ले कर चल पड़ता है बहुत सुखद है
सुन्दर कविता पढवाने के लिए आभार!
निराला जी ने ज़रूर इसे गंगा के किनारे लिखा होगा...ये रचना यू पी बोर्ड के पाठ्यक्रम में भी थी...
bahut accha
निराला जी को याद कराने का आभार!
आप पुरानी यादो को ताजा कर देते है
आपके माध्यम से निराला जी की यह कविता पहली बार पढी |
बहुत अच्छी जानकारी है हमारे ब्लोग में भी पधारे
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