Tuesday, June 28, 2011

कामायनी

('लज्जा' परिच्छेद)

यह आज समझ तो पाई हूँ मैं दुर्बलता में नारी हूँ,
अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर मैं सबसे हारी हूँ।
पर मन भी क्यों इतना ढीला अपने ही होता जाता है,
घनश्याम-खंड-सी आँखों में क्यों सहसा जल भर आता है?
सर्वस्व-समर्पण करने की विश्वास-महा-तरु-छाया में,
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों ममता जगती हैं माया में?
छायापथ में तारक-द्युति सी झिलमिल करने की मधु-लीला,
अभिनय करती क्यों इस मन में कोमल निरीहता श्रम-शीला?
निस्संबल होकर तिरती हूँ इस मानस की गहराई में,
चाहती नहीं जागरण कभी सपने की इस सुघराई में।
नारी जीवन की चित्र यही क्या? विकल रंग भर देती हो,
अस्फुट रेखा की सीमा में आकार कला को देती हो।
रुकती हूँ और ठहरती हूँ पर सोच-विचार न कर सकती,
पगली-सी कोई अंतर में बैठी जैसे अनुदित बकती।
मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूँ,
भुजलता फँसा कर नर-तरु से झूले-सी झोंके खाती हूँ।
इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है,
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ, इतना ही सरल झलकता है।
"क्या कहती हो ठहरो नारी! संकल्प-अश्रु जल से अपने -
तुम दान कर चुकी पहले ही जीवन के सोने-से सपने।
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास-रजत-नग पगतल में,
पीयूष-स्रोत बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।
देवों की विजय, दानवों की हारों का होता युद्ध रहा,
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित रह नित्य-विरुद्ध रहा।
आँसू से भींगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा -
तुमको अपनी स्मित रेखा से यह संधिपत्र लिखना होगा।"

- जयशंकर प्रसाद

11 comments:

Maheshwari kaneri said...

जयशंकर प्रसाद जी की सर्वोत्तम्र रचना में से एक है अच्छी रचनाओ को पढवाने के लिए धन्यवाद ....

रविकर said...

धन्यवाद
अदभुत रचना --
पढवाने के लिए धन्यवाद ||

रेखा said...

प्रसाद जी की दिव्य रचना पढवाने के लिए धन्यवाद .

Dr. Naveen Solanki said...

wat a touching poem........:)
thx for sharing with us....



regards
Naveen solanki
http://drnaveenkumarsolanki.blogspot.com/

Vaanbhatt said...

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास-रजत-नग पगतल में,
पीयूष-स्रोत बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।

कामायनी प्रसाद जी की अनुपम कृति है...नारी सम्मान को समर्पित...

Shalini kaushik said...

jaishankar prasad ji ki har kriti samman ke yogya hai.aapki prastuti sarahniy hai.

G.N.SHAW said...

प्रसाद जी की रचना के ऊपर टिपण्णी मेरे वश में नहीं ! अतिसुन्दर लेखनी थी उनकी !

arvind said...

धन्यवाद
अदभुत रचना .पढवाने के लिए धन्यवाद

upendra shukla said...

bahut acchi rachna

virendra sharma said...

अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर में सबसे हारी हूँ ,यही संत्रास तो आज भी ज़ारी है .

Vivek Jain said...

आपा सभी का बहुत बहुत आभार,
विवेक जैन