एक भी आँसू न कर बेकार -
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है,
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है,
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है,
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं,
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ -
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं,
हर छलकते अश्रु को कर प्यार -
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!
व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की,
काम अपने पाँव ही आते सफर में,
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा -
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में,
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार -
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!
- रामावतार त्यागी
Thursday, June 30, 2011
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16 comments:
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है,
bahut achchhi panktiyan ||
bahut accha
"samrat bundelkhand"
बहुत ही अच्छा।
आपकी इस उत्कृष्ट प्रवि्ष्टी की चर्चा कल शुक्रवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल उद्देश्य से दी जा रही है!
रामावतार त्यागी को पहले कभी पढने का सौभाग्य नहीं मिल पाया, आपके सौजन्य से जो पढ़ा अच्छा लगा.
चन्द्र कुंवर बर्त्वाल के बारे में मैंने पहले भी आपको लिखा था, तो उनका संक्षिप्त परिचय है कि उनका जीवनकाल 1919 से 1948 तक रहा, इलाहबाद से स्नातक करने के बाद लखनऊ में (1939 ) स्नातकोत्तर में दाखिला लिया किन्तु वे राजयक्ष्मा से पीड़ित हुए और अकाल मृत्यु का वरण को प्राप्त हुए. उन्होंने 29 वर्ष की छोटी सी उम्र में जीतू, छोटे गीत, नंदिनी, कंकड़ पत्थर आदि शीर्षकों से लगभग 700 कविताये लिखी.
अतः यदि 'मेरे सपने' में उनको स्थान मिल सके तो ब्लोगर्स उनकी कविताओं का आनंद ले सकेंगे.
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा -
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में,
ramavtar ji ki kavita aur ye panktiyan sahjne yogya hain.
काम अपने पाँव
ही आते सफर में ,
व्यर्थ है करना ,
खुशामद रास्तों की .
कितना सार्थक लिखा जाता था उस दौर में ,जब रचना पक के निकलती थी अन्दर से .
very nice
chhotawriters.blogspot.com
एक भी आँसू न कर बेकार -
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है,
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है,
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है,
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!
bahut sunder
प्रशंसनीय काव्य , मुखर शब्दों में प्रखर सोच को सम्मान , बहुत -२ शुक्रिया जी .../
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं,
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ -
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं,
हर छलकते अश्रु को कर प्यार -
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!
बहुत सुन्दर उदगार...धन्यवाद
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं,
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
bahut kuchh samjhati naye marg batati sunder post.
स्वालंबन को कुरेदती कविता ! सुन्दर
वाह .. कितना गहरा सन्देश छिपा है इस रचना मैं ... कमाल की कृति ..
आप सभी का बहुत बहुत आभार,
विवेक जैन
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