Wednesday, November 23, 2011

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत[1] है

जो डर के नार-ए-दोज़ख़[2] से ख़ुदा का नाम लेते हैं
इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है

मगर जब शुक्र-ए-ने'मत में जबीं झुकती है बन्दे की
वो सच्ची बन्दगी है इक शरीफ़ाना इत'अत[3] है

कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्दा[4] हो जा
ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बाख़ुदा[5] हो जा

उठा लेती हैं लहरें तहनशीं[6] होता है जब कोई
उभरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना[7] हो जा


शब्दार्थ:

1. व्यापार
2. जहन्नुम की आग
3. समर्पण
4. किसी के लक्ष्य की तरफ ध्यान न दे
5. खुदा का भक्त
6. पानी में डूबता
7. मौत के गहरे समुन्दर में डूब

-जोश मलीहाबादी

6 comments:

चंदन कुमार मिश्र said...

शुरू में पसन्द आया…

प्रवीण पाण्डेय said...

गहरे..

रविकर said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||

बधाई महोदय ||

dcgpthravikar.blogspot.com

रेखा said...

प्रभावी रचना ...

दिगम्बर नासवा said...

जोश मलीहाबादी जी का जवाब नहीं है ... ;लाजवाब शेर हैं सभी ...

***Punam*** said...

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में ,
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत है !

इबादत में उठे हाथ मागें भी क्यूँ......?
ये तो देने वाला जाने उसे क्या देना है...!!