इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत[1] है
जो डर के नार-ए-दोज़ख़[2] से ख़ुदा का नाम लेते हैं
इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है
मगर जब शुक्र-ए-ने'मत में जबीं झुकती है बन्दे की
वो सच्ची बन्दगी है इक शरीफ़ाना इत'अत[3] है
कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्दा[4] हो जा
ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बाख़ुदा[5] हो जा
उठा लेती हैं लहरें तहनशीं[6] होता है जब कोई
उभरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना[7] हो जा
शब्दार्थ:
1. व्यापार
2. जहन्नुम की आग
3. समर्पण
4. किसी के लक्ष्य की तरफ ध्यान न दे
5. खुदा का भक्त
6. पानी में डूबता
7. मौत के गहरे समुन्दर में डूब
-जोश मलीहाबादी
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6 comments:
शुरू में पसन्द आया…
गहरे..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
बधाई महोदय ||
dcgpthravikar.blogspot.com
प्रभावी रचना ...
जोश मलीहाबादी जी का जवाब नहीं है ... ;लाजवाब शेर हैं सभी ...
इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में ,
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत है !
इबादत में उठे हाथ मागें भी क्यूँ......?
ये तो देने वाला जाने उसे क्या देना है...!!
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