उत्तर नहीं हूँ
मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!
नये-नये शब्दों में तुमने
जो पूछा है बार-बार
पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!
तुमने गढ़ा है मुझे
किन्तु प्रतिमा की तरह स्थापित नहीं किया
या
फूल की तरह
मुझको बहा नहीं दिया
प्रश्न की तरह मुझको रह-रह दोहराया है
नयी-नयी स्थितियों में मुझको तराशा है
सहज बनाया है
गहरा बनाया है
प्रश्न की तरह मुझको
अर्पित कर डाला है
सबके प्रति
दान हूँ तुम्हारा मैं
जिसको तुमने अपनी अंजलि में बाँधा नहीं
दे डाला!
उत्तर नहीं हूँ मैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!
-धर्मवीर भारती
Friday, June 24, 2011
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14 comments:
भारती जी की एक बहुत अच्छी कविता पढ़वाने के लिये आभार !
bahut sarahniy prastuti.
धर्मवीर भारती जी इस रचना को शेयर करने हेतु बेहद आभार....
विवेक जी आप अच्छा कार्य कर रहे हैं... बधाई...
सादर...
धर्मवीर भारती जी की एक बहुत अच्छी कविता पढ़वाने के लिये आभार !
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!
धन्य हुआ भारती जी को पढ़कर ||
लुका छिपी का जीवन।
धर्मवीर भारती जी को पढ़वाने के लिए आभार!
आपकी खोज सराहनीय है...भारती जी की याद एक इलाहाबादी को दिलाने के लिए...धन्यवाद...
नये-नये शब्दों में तुमने
जो पूछा है बार-बार
पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही! ...bhut sundar .....
धर्मवीर भारती की इस नायाब रचना के लिए आभार.
कभी चन्द्र कुँवर बर्त्वाल की कविताओं को भी मेरे सपने में जगह दें .
bahut hi shaandaar chayan
भारती जी रचना पढवाने हेतु धन्यवाद
नये-नये शब्दों में तुमने
जो पूछा है बार-बार
पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!
भारती जी की एक उत्कृष्ट रचना प्रस्तुत करने के लिए आभार, विवेक जी।
सबको पढ़ना अच्छा लगता है. पढवाने के लिए आभार.
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