कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद ।
- नागार्जुन
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
8 comments:
नागार्जुन की तो यह सबसे प्रसिद्ध रचनाओं में हैं। इस पर हम क्या कह सकते हैं?
अन्दर तक प्रभावित करती रचना।
बाबा नागार्जुन की यही विशेषता रही कि वे सरल और सामान्य शब्दों से ऐसी सुगढ़ और सुन्दर रचना का सर्जन करते थे कि कविता सीधे पाठक के दिल में प्रवेश करती. फिर यह कविता तो अकाल की विभीत्सा को बयां करती है. प्रस्तुति के लिए आभार !
@ आपने मुझे जो जिम्मेदारी सौंपी थी उसको पूरा ना करने के लिए क्षमा चाहता हूँ. फिर भी प्रयास करूंगा.
@ इस ब्लॉग पर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की कविता को देर से पढ़ा. अतः कुछ लिख नहीं पाया. क्षमा चाहूँगा. आभार !!
नागार्जुन की ये पंक्तियाँ तो जब पहली बार पढ़ा था तभी दिल में उतर गई थींय़
बाबा नागार्जुन की सुन्दर रचना के लिए आभार....
नागार्जुन की इस बेहतरीन रचना का तो जबाब नहीं ........
जो झेलते हैं वो ही जानते हैं..
और यहाँ तो भैया घर-घर में खाने के वांदे हैं :(
आभार
तेरे-मेरे बीच पर आपके विचारों का इंतज़ार है...
bahut hi marmik bhav.........
Post a Comment