Friday, September 23, 2011

एक तिनका

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ,
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ,
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा,
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे,
ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भागने लगी।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया,
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा,
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।
- अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

14 comments:

चंदन कुमार मिश्र said...

वाह। अहम् का यह हाल। एक तिनका से याद आयी वह कहानी जिसमें हाथी एक चींटी के सूँड़ में घुस जाने से परेशान है।

प्रवीण पाण्डेय said...

सबक सिखाने को एक तिनका ही बहुत है।

अजित गुप्ता का कोना said...

बहुत ही श्रेष्‍ठ कविता। आभार आपका।

रविकर said...

अति सुन्दर ||

बधाई |

Arunesh c dave said...

क्या बात है ऐंठ जाती रही हस्ती सम्झ आ गयी

रेखा said...

अयोध्या सिंह उपाध्यायजी की रचना पढ़वाने के लिए आभार आपका

शूरवीर रावत said...

इंसानी हैसियत का आभास कराती यह कविता हरिऔध जी की श्रेष्ठ रचनाओं में से एक है. प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार!

***Punam*** said...

अच्छी कविताओं से पुन: अवगत कराने के लिए धन्यवाद...

Vaanbhatt said...

आदमी की अकड़ ऐसे ही ढीली पड़ती है...

सदा said...

बहुत ही सार्थक व सटीक लेखन ।

Maheshwari kaneri said...

बहुत ही सार्थक व सटीक रचना...

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

बहुत अच्छी कविता …

सच है , घमंड तोड़ने के लिए एक तिनका ही पर्याप्त है !


आपके प्रति आभार !

Dr Varsha Singh said...

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी महान रचनाकार थे....उनकी रचना पढ़वाने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार.

दिगम्बर नासवा said...

ये कविता कुछ ही दिन पहले बेटी की पुस्तक में पढ़ी ... बहुत ही लाजवाब रचना है ... कितना कुछ सिखा जाती है ...