मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ,
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ,
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।
मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा,
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे,
ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भागने लगी।
जब किसी ढब से निकल तिनका गया,
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा,
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।
- अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
Friday, September 23, 2011
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14 comments:
वाह। अहम् का यह हाल। एक तिनका से याद आयी वह कहानी जिसमें हाथी एक चींटी के सूँड़ में घुस जाने से परेशान है।
सबक सिखाने को एक तिनका ही बहुत है।
बहुत ही श्रेष्ठ कविता। आभार आपका।
अति सुन्दर ||
बधाई |
क्या बात है ऐंठ जाती रही हस्ती सम्झ आ गयी
अयोध्या सिंह उपाध्यायजी की रचना पढ़वाने के लिए आभार आपका
इंसानी हैसियत का आभास कराती यह कविता हरिऔध जी की श्रेष्ठ रचनाओं में से एक है. प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार!
अच्छी कविताओं से पुन: अवगत कराने के लिए धन्यवाद...
आदमी की अकड़ ऐसे ही ढीली पड़ती है...
बहुत ही सार्थक व सटीक लेखन ।
बहुत ही सार्थक व सटीक रचना...
बहुत अच्छी कविता …
सच है , घमंड तोड़ने के लिए एक तिनका ही पर्याप्त है !
आपके प्रति आभार !
अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी महान रचनाकार थे....उनकी रचना पढ़वाने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार.
ये कविता कुछ ही दिन पहले बेटी की पुस्तक में पढ़ी ... बहुत ही लाजवाब रचना है ... कितना कुछ सिखा जाती है ...
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