Monday, September 26, 2011

यह कदंब का पेड़

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
-सुभद्रा कुमारी चौहान

10 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कदम्ब की डारन,
मन मैं हारन..

रेखा said...

बहुत ही प्यारी रचना ...

vandana gupta said...

बचपन मे पढी थी आज एक बार फिर पढवाने के लिये हार्दिक आभार्…………बहुत ही सरस , सरल और भावमयी लयबद्ध रचना है ये सुभद्रा कुमारी चौहान की।

चंदन कुमार मिश्र said...

पढ़ी थी पहले। मधुर लेकिन अब के बच्चे?…

Maheshwari kaneri said...

बचपन मे पढी थी और बच्चों को भी पढा़या ..…बहुत ही सरस , सरल और भावमयी .कविता है...

Anonymous said...

सुंदर बहुत खूब

रचना दीक्षित said...

मज़ा आ गया. बधाई सुंदर रचना पढवाने के लिये.

Dr (Miss) Sharad Singh said...

बचपन मे पढ़ी थी यह कविता...
आज एक बार फिर पढ़वाने के लिये हार्दिक आभार……

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...





आपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !

-राजेन्द्र स्वर्णकार

दिगम्बर नासवा said...

कदम का पेड़ ... बचपन की यादों को ताज़ा कर गया ... नमन है सुभद्रा कुमारी जी को ...