Tuesday, April 12, 2011

आराधना

जब मैं आँगन में पहुँची,
पूजा का थाल सजाए।
शिवजी की तरह दिखे वे,
बैठे थे ध्यान लगाए॥

जिन चरणों के पूजन को
यह हृदय विकल हो जाता।
मैं समझ न पाई, वह भी
है किसका ध्यान लगाता?

मैं सन्मुख ही जा बैठी,
कुछ चिंतित सी घबराई।
यह किसके आराधक हैं,
मन में व्याकुलता छाई॥

मैं इन्हें पूजती निशि-दिन,
ये किसका ध्यान लगाते?
हे विधि! कैसी छलना है,
हैं कैसे दृश्य दिखाते??

टूटी समाधि इतने ही में,
नेत्र उन्होंने खोले।
लख मुझे सामने हँस कर
मीठे स्वर में वे बोले॥

फल गई साधना मेरी,
तुम आईं आज यहाँ पर।
उनकी मंजुल-छाया में
भ्रम रहता भला कहाँ पर॥

अपनी भूलों पर मन यह
जाने कितना पछताया।
संकोच सहित चरणों पर,
जो कुछ था वही चढ़ाया॥
-सुभद्राकुमारी चौहान

6 comments:

पद्म सिंह said...

अद्भुद... बहुत सुन्दर रचना

प्रवीण पाण्डेय said...

सुन्दर कविता पढ़वाने का आभार।

Vivek Jain said...

sorry friends, I'm a bit busy nowadays, though a new poem will be posted almost everyday, but i'll not be able to reply individual comments for almost one week. I hope you understand.... but i'm really grateful to god to have company of such hindi litreture, please keep visiting, thanks to all of your mitron.

Patali-The-Village said...

सुभद्रा कुमारी चौहान जी की कविता पढवाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद|

Amrita Tanmay said...

Subhadra jee ki kavitaye padhana sukhad anubhuti hai.aabhar

संजय भास्‍कर said...

सुन्दर कविता पढ़वाने का आभार।