Friday, April 29, 2011

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
-दुष्यंत कुमार

7 comments:

Shikha Kaushik said...

Dushyant ji ki prasidh gazal aapne prastut kar sabko is se rubru kara ham sabhi ko kritarth kar diya hai .aabhar .

आनंद said...

mujhe bahut pasand hai yeh gazal ...jab se ise padha hai...salon hogaye aaj bhi prasangik hai...nit nootan !

Kailash Sharma said...

दुष्यंत जी की एक सशक्त रचना पढवाने के लिये आभार..

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

दुष्यंत जी कि रचना पढवाने के लिए आभार

ज्योति सिंह said...

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
saare rachnaakaar apni pasand ke ,bahut badhiya

Vivek Jain said...

आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद!
विवेक जैन

aarkay said...

" सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। "
दुष्यंत जी की ये पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक प्रतीत होती हैं .

प्रस्तुति के लिए आभार !