अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों तक
किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं
-निदा फ़ाज़ली
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6 comments:
वाह। आभार।
waaaaaaaah vivek ji....ab lagta hai achh gazlen likhi hi nahi jaati....bahut achhi gazal agar kahin milti bhi hai to uska ek sher hi achha hota hai....khair abhar aapka bandhuvar !
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
...bahut khoob.
thanks friends for your visit.
-Vivek
Aanand se bhar diya...aabhar.
"ला-जवाब" जबर्दस्त!!
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