Wednesday, April 20, 2011

तोड़ती पत्थर

वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-


वह तोड़ती पत्थर।


कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,


प्रायः हुई दुपहर :-

वह तोड़ती पत्थर।


देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-

"मैं तोड़ती पत्थर।"

-सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

5 comments:

DR. ANWER JAMAL said...

Nice post.
वह तोड़ता पत्थर

वह तोड़ता पत्थर
और ओढ़ता चादर
तन है ख़ाली मन है भारी
खाने को सिर्फ गालियां हैं

लेकर मजूरी शाम को
लौटता है जब ग्राम को
अपना सर्वस्व सौंप देता
अपनी धन्नो के हाथ में
पर कहीं कोई खोज बाकी रहती है हर हाल में

अपनी पूंजी , अपना पौरूष
और ले विश्वास को
फिर पहुंचता है कुरूक्षेत्र
अपने कर्म के लिए

ना है शिकवा
ना गिला है
तोड़ते पत्थर के संग
खुद भी टूटा जा रहा है
खुद को पाने की उम्मीदों से
वो दूर होता जा रहा है
http://urvija.parikalpnaa.com/2011/04/blog-post_17.html

संजय कुमार चौरसिया said...

vivikji achchhi rachna hai,

aabhar

SANDEEP PANWAR said...

विवेक जी, मैं भी २६ फ़रवरी को इलाहाबाद में ही था मुझे तो ऐसा कोई ना दिखा?

Vivek Jain said...

डा. अनवर जी! बहुत ही शानदार!
चौरसिया जी , बहुत बहुत धन्यवाद!
जाट देवता जी! शायद आप दूसरे इलाके में होंगें!
आपका धन्यवाद!
विवेक जैन!

aarkay said...

" मई दिवस " पर इस कविता की सदा याद आती है .