नज्म बहुत आसान थी पहले
घर के आगे
पीपल की शाखों से उछल के
आते-जाते बच्चों के बस्तों से
निकल के
रंग बरंगी
चिडयों के चेहकार में ढल के
नज्म मेरे घर जब आती थी
मेरे कलम से जल्दी-जल्दी
खुद को पूरा लिख जाती थी,
अब सब मंजर बदल चुके हैं
छोटे-छोटे चौराहों से
चौडे रस्ते निकल चुके हैं
बडे-बडे बाजार
पुराने गली मुहल्ले निगल चुके हैं
नज्म से मुझ तक
अब मीलों लंबी दूरी है
इन मीलों लंबी दूरी में
कहीं अचानक बम फटते हैं
कोख में माओं के सोते बच्चे डरते हैं
मजहब और सियासत मिलकर
नये-नये नारे रटते हैं
बहुत से शहरों-बहुत से मुल्कों से अब होकर
नज्म मेरे घर जब आती है
इतनी ज्यादा थक जाती है
मेरी लिखने की टेबिल पर
खाली कागज को खाली ही छोड के
रुख्ासत हो जाती है
और किसी फुटपाथ पे जाकर
शहर के सब से बूढे शहरी की पलकों पर
आँसू बन कर
सो जाती है।
-निदा फ़ाज़ली
Tuesday, May 3, 2011
नज्म बहुत आसान थी पहले
Labels:
nostalgia,
नज्म बहुत आसान थी पहले,
निदा फ़ाज़ली,
भविष्य,
भुत,
वर्तमान
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
9 comments:
बढ़िया प्रस्तुति ! तेज़ी से बदल चुके हालात में नज़्म सूझे भी तो कैसे !
छोटे-छोटे चौराहों से
चौडे रस्ते निकल चुके हैं
बडे-बडे बाजार
पुराने गली मुहल्ले निगल चुके हैं
नज्म से मुझ तक
अब मीलों लंबी दूरी है
..
निदा साहब की ..सोंच तो वैसे भी कमाल की थी ....
शानदार प्रस्तुति....!
बहुत सुन्दर, आभार।
बहुत ही उम्दा प्रस्तुति. वाह...
क्या हिन्दी चिट्ठाकार अंग्रेजी में स्वयं को ज्यादा सहज महसूस कर रहे हैं ?
Aarkay जी,आनंद जी, प्रवीण जी और सुशील जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद.
विवेक जैन
निदा फाज़ली साहेब को पढ़वाने का आभार.
बेहद शानदार,
bahut sunder rachna sunane ka dhanyavad......
itni sunder rachnayein pervane ke liye dhanyabad
+
Post a Comment