अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं
खो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका
देखा जग ने टोपी बदली
तो मन बदला, महिमा बदली
पर ध्वजा बदलने से न यहाँ
मन-मंदिर की प्रतिमा बदली
मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई
धो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका
हड़ताल, जुलूस, सभा, भाषण
चल दिए तमाशे बन-बनके
पलकों की शीतल छाया में
मैं पुनः चला मन का बन के
जो चाहा करता चला सदा प्रस्तावों को मैं
ढो न सका
चाहे जिस दल में मैं जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका
दीवारों के प्रस्तावक थे
पर दीवारों से घिरते थे
व्यापारी की ज़ंजीरों से
आज़ाद बने वे फिरते थे
ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुखशय्या पर भी
सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका
-गोपाल सिंह नेपाली
Monday, May 9, 2011
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6 comments:
भीड़ों में खो जाने को नहीं बने हम।
ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुखशय्या पर भी
सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका
bahut sundar prastuti.aabhar
उत्कृष्ट रचना साझा की आभार
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ
इतना सस्ता हो न सका'
गोपाल सिंह नेपाली जी की कविता अच्छी लगी.
मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई
धो न सका' भाई ये तो एकदम मेरे मन की बात कही है कवि ने. एक बात बताओ विवेक! इतनी सुंदर कविताओं को प्रस्तुत करते हो यानि कविता की समझ रखते हो,उसमे डूबना भी जानते हो.तुम्हारी पसंद तुम्हारे संवेदनशील मन,बुद्धिमत्ता,इंटेलीजेंसी को बताती है.और एक अच्छे इंसान हो ये भी पता चल जाता है.........खु लिखते क्यों नही?क्या इस ब्लॉग पर तुम्हारी अपनी रचनाए है?तो लिंक दो.'तुम' लिख रही हूँ.लेखनी से युवक ही लग रहे हो.क्षमा कर देना. मेल आईडी नही मिला इसलिए सब यहीं लिख रही हूँ.यूँ भी जो कहती हूँ सबके सामने कहती हूँ.क्या करूं?
ऐसिच हूँ मैं तो.
vivek bhai,
ye panktiyaan bahut khoobsurat lagi
जो चाहा करता चला सदा प्रस्तावों को मैं
ढो न सका
चाहे जिस दल में मैं जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका
waah!
बहुत सुन्दर रचना आज के समाज के परिप्रेक्ष्य में और अच्छियों को अपनाने की तरफ इंगित करती
बधाई हो .
शुक्ल भ्रमर ५
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