Monday, May 9, 2011

अपनेपन का मतवाला

अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं
खो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

देखा जग ने टोपी बदली
तो मन बदला, महिमा बदली
पर ध्वजा बदलने से न यहाँ
मन-मंदिर की प्रतिमा बदली

मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई
धो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

हड़ताल, जुलूस, सभा, भाषण
चल दिए तमाशे बन-बनके
पलकों की शीतल छाया में
मैं पुनः चला मन का बन के

जो चाहा करता चला सदा प्रस्तावों को मैं
ढो न सका
चाहे जिस दल में मैं जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

दीवारों के प्रस्तावक थे
पर दीवारों से घिरते थे
व्यापारी की ज़ंजीरों से
आज़ाद बने वे फिरते थे

ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुखशय्या पर भी
सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

-गोपाल सिंह नेपाली

6 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

भीड़ों में खो जाने को नहीं बने हम।

Shalini kaushik said...

ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुखशय्या पर भी
सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका
bahut sundar prastuti.aabhar

डॉ. मोनिका शर्मा said...

उत्कृष्ट रचना साझा की आभार

Anonymous said...

चाहे जिस दल में मिल जाऊँ
इतना सस्ता हो न सका'

गोपाल सिंह नेपाली जी की कविता अच्छी लगी.

मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई
धो न सका' भाई ये तो एकदम मेरे मन की बात कही है कवि ने. एक बात बताओ विवेक! इतनी सुंदर कविताओं को प्रस्तुत करते हो यानि कविता की समझ रखते हो,उसमे डूबना भी जानते हो.तुम्हारी पसंद तुम्हारे संवेदनशील मन,बुद्धिमत्ता,इंटेलीजेंसी को बताती है.और एक अच्छे इंसान हो ये भी पता चल जाता है.........खु लिखते क्यों नही?क्या इस ब्लॉग पर तुम्हारी अपनी रचनाए है?तो लिंक दो.'तुम' लिख रही हूँ.लेखनी से युवक ही लग रहे हो.क्षमा कर देना. मेल आईडी नही मिला इसलिए सब यहीं लिख रही हूँ.यूँ भी जो कहती हूँ सबके सामने कहती हूँ.क्या करूं?
ऐसिच हूँ मैं तो.

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

vivek bhai,
ye panktiyaan bahut khoobsurat lagi

जो चाहा करता चला सदा प्रस्तावों को मैं
ढो न सका
चाहे जिस दल में मैं जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

waah!

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

बहुत सुन्दर रचना आज के समाज के परिप्रेक्ष्य में और अच्छियों को अपनाने की तरफ इंगित करती
बधाई हो .
शुक्ल भ्रमर ५