भारत क्यों तेरी साँसों के, स्वर आहत से लगते हैं,
अभी जियाले परवानों में, आग बहुत-सी बाकी है।
क्यों तेरी आँखों में पानी, आकर ठहरा-ठहरा है,
जब तेरी नदियों की लहरें, डोल-डोल मदमाती हैं।
जो गुज़रा है वह तो कल था, अब तो आज की बातें हैं,
और लड़े जो बेटे तेरे, राज काज की बातें हैं,
चक्रवात पर, भूकंपों पर, कभी किसी का ज़ोर नहीं,
और चली सीमा पर गोली, सभ्य समाज की बातें हैं।
कल फिर तू क्यों, पेट बाँधकर सोया था, मैं सुनता हूँ,
जब तेरे खेतों की बाली, लहर-लहर इतराती है।
अगर बात करनी है उनको, काश्मीर पर करने दो,
अजय अहूजा, अधिकारी, नय्यर, जब्बर को मरने दो,
वो समझौता ए लाहौरी, याद नहीं कर पाएँगे,
भूल कारगिल की गद्दारी, नई मित्रता गढ़ने दो,
चलो ये माना थोड़ा गम है, पर किसको न होता है,
जब रातें जगने लगती हैं, तभी सवेरा सोता है,
जो अधिकारों पर बैठे हैं, वह उनका अधिकार ही है,
फसल काटता है कोई, और कोई उसको बोता है।
क्यों तू जीवन जटिल चक्र की, इस उलझन में फँसता है,
जब तेरी गोदी में बिजली कौंध-कौंध मुस्काती है।
- अभिनव शुक्ला
Saturday, May 28, 2011
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28 comments:
कल फिर तू क्यों, पेट बाँधकर सोया था, मैं सुनता हूँ,
जब तेरे खेतों की बाली, लहर-लहर इतराती है।
सच्चाई को दर्शाती दिल को छू लेने वाली कविता
ख़ूबसूरत प्रस्तुति...
चलो ये माना थोड़ा गम है, पर किसको न होता है,
जब रातें जगने लगती हैं, तभी सवेरा सोता है,
जो अधिकारों पर बैठे हैं, वह उनका अधिकार ही है,
फसल काटता है कोई, और कोई उसको बोता है।
जोश से लबरेज़ संदेश और ओज जगाती कविता बहुत पसंद आई।
अभिनव शुक्ला की रचना पहले शायद ही पढ़ी हो, आज आपके सौजन्य से पढ़ी. अच्छा लगा विवेक जी. आपका 'टेस्ट' ही वास्तव में कमाल का है. मुझे याद आ रहा है कि अस्सी के दशक में गुलशन कुमार जी ने 'यादें' नाम से पुरानी हिंदी फिल्मो के गानों की कैसेट्स निकाली थी. खूब पसंद की गयी. हालाँकि कविता ही गानों के रूप में गयी जाती हैं किन्तु फिर भी गानों और कविता में फर्क होता है. गानों को समझने के लिए केवल भाषा का ज्ञान काफी है जबकि कविता को समझने के लिए भाषा, लिपि और व्याकरण का ज्ञान होना आवश्यक है और सबसे ऊपर काव्य की रूचि, कवितामय ह्रदय, और बहुत कुछ.
सार्थक पोस्ट के लिए आभार. बारामासा पर आपसे टिपण्णी अपेक्षित है. कृपया बारामासा के 'Follower' बने.
Really it was a great pleasure to read this.
Each single line with a new meaning.
चलो ये माना थोड़ा गम है, पर किसको न होता है,
जब रातें जगने लगती हैं, तभी सवेरा सोता है,
जो अधिकारों पर बैठे हैं, वह उनका अधिकार ही है,
फसल काटता है कोई, और कोई उसको बोता है
vivek ji aapka sankalan gazab ka hai.abhinav ji sundar kriti padhvane ke liye aabhar.
प्रभावित करती कविता।
जो अधिकारों पर बैठे हैं, वह उनका अधिकार ही है,
फसल काटता है कोई, और कोई उसको बोता है।बहुत ही सुन्दर अनुभूति !
सशक्त सकारात्मक सोच से भरी एक achchhi रचना .बधाई .
जब रातें जगने लगती हैं, तभी सवेरा सोता है।
...कमाल की पंक्ति।
सच्चाई को दर्शाती दिल को छू लेने वाली कविता
यथार्थ के पास कविता...बेहतरीन प्रयास !
ओजपूर्ण रचना
bahut hi khoobsurti se likhi hui....
achha sankalan....
क्यों तू जीवन जटिल चक्र की, इस उलझन में फँसता है,
जब तेरी गोदी में बिजली कौंध-कौंध मुस्काती है।
bahut hi prabhavshali rachna
चलो ये माना थोड़ा गम है, पर किसको न होता है,
जब रातें जगने लगती हैं, तभी सवेरा सोता है,
जो अधिकारों पर बैठे हैं, वह उनका अधिकार ही है,
फसल काटता है कोई, और कोई उसको बोता है।
bahut badiyaa prastuti.badhaai aapko.
please visit my blog and feel free to comment.thanks
जब रातें जगने लगती हैं, तभी सवेरा सोता है।
इस एक पंक्ति में कवि ने बहुत कुछ कह दिया है। अभिनव शुक्ला जी का यह गीत मन को प्रभावित करता है।
"Let this be a little sorrow, but not whom is
When night Jagne seem only morning sleeps
The rights are sitting on, it is their right,
Crop bites someone, and no it sows."
...this lines volumes to me deeply... it's interesting to see how your thoughts goes and becomes... have a good day.
btw, i was able to read your poem via google chrome's translation... keep the words coming..
~Kelvin
आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया
-विवेक जैन
अभिनव शुक्ला की यह क्रांति-स्वर की कविता है-
"जो अधिकारों पर बैठे हैं, वह उनका अधिकार ही है,
फसल काटता है कोई, और कोई उसको बोता है।"
आपका आभार.
क्यों तू जीवन जटिल चक्र की, इस उलझन में फँसता है,
जब तेरी गोदी में बिजली कौंध-कौंध मुस्काती है।
अभिनव जी बहुत सुंदर कविता और आक्रोश के भाव. बहुत स्पष्ट. बधाई.
चलो ये माना थोड़ा गम है, पर किसको न होता है,
जब रातें जगने लगती हैं, तभी सवेरा सोता है,
जो अधिकारों पर बैठे हैं, वह उनका अधिकार ही है,
फसल काटता है कोई, और कोई उसको बोता है।...sahi kaha
देश भक्ति से भरी सुन्दर और प्रेरक रचना !
ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी:
कल फिर तू क्यों, पेट बाँधकर सोया था, मैं सुनता हूँ,
जब तेरे खेतों की बाली, लहर-लहर इतराती है।
excellent bro!
क्यों तू जीवन जटिल चक्र की, इस उलझन में फँसता है,
जब तेरी गोदी में बिजली कौंध-कौंध मुस्काती है..
ओजस्वी रचना ... बहुत ही लाजवाब पंक्तियाँ है ...
Abhinav Shukla jee ki is ojaswi tejaswi rachna ko padhwa kar aapne bada nek kam kiya hai.
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