Sunday, May 22, 2011

दोनों ओर प्रेम पलता है

दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!
सीस हिलाकर दीपक कहता--
’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
पर पतंग पड़ कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नही तो मरा करे क्या?
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

कहता है पतंग मन मारे--
’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?
शरण किसे छलता है?’
दोनों ओर प्रेम पलता है।

दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।

जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती जिससे चखती;
काम नहीं, परिणाम निरखती।
मुझको ही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।
-मैथिलीशरण गुप्त

28 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आभार!

Bharat Bhushan said...

गुप्त जी की यह रचना मैंने नहीं पढ़ी थी. आपको धन्यवाद. यदि आपकी रचनाएँ पढ़ने को मिलें तो मुझे और भी खुशी होगी.

शूरवीर रावत said...

मैथिलि शरण गुप्त जी की यह रचना संभवतः साकेत से ही है. लगभग तीन दशक पूर्व साकेत पढी थी. गैर हिन्ढी भाषी पर्वतीय प्रदेश के एक छोटे से क़स्बे में रहता था. समय इफरात था परन्तु किताबें नहीं मिलती थी पढने को. एक सरकारी पुस्तकालय में साकेत मिल गयी. तब पढी थी. आज आपने वह याद ताजा कर ली.
इस सुन्दर पोस्ट के लिए बहुत बहुत आभार. - Please be follower of- baramasa98.blogspot.com

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी कविता पढवाने के लिए आभार।

प्रवीण पाण्डेय said...

आभार।

Vivek Jain said...

आप सभी का आभार
-विवेक जैन

Vivek Jain said...

सुबीर रावत जी, आपने बिल्कुल सही कहा,ये पंक्तियाँ साकेत से ही हैं, धन्य है आपका ज्ञान!
विवेक जैन

prerna argal said...

guptji ki itani achchi rachanaa padhwane ke liye aapka bahut-bahut dhanyawaad.aabhaar.


plese visit my blog and leave the comments also.thanks

Vaanbhatt said...

इश्क गर एक तरफ हो तो सजा देता है...
और जब दोनों तरफ हो तो मज़ा देता है...

Shikha Kaushik said...

Mathilisharan gupt ji ki yah rachna prastut kar hamare samaksh lane hetu hardik dhanywad .

Shalini kaushik said...

दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।
rashtr kavi shri maithli sharan gupt ji kee aisee bhavpoorn kavita padhvane ke liye vivek ji aapka hriday se aabhar prakat karti hoon.

महेन्‍द्र वर्मा said...

प्रेम भाव से ओत-प्रोत मैथिली शरण गुप्त जी की यह रचना प्रस्तुत करने के लिए आभार।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जी का सुन्दर गीत पढवाने का आभार ....

गिरधारी खंकरियाल said...

प्रेम पर पतंगा भी बलिदान करता है तो मनुष्य क्यों नहीं

Sawai Singh Rajpurohit said...

दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।

बेहद खूबसूरत रचना

Jyoti Mishra said...

beautiful lines !!!

डा श्याम गुप्त said...

sundar...yah gupt ji ka prasiddh geet hai---aabhaar...

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत अच्छी कविता पढवाने के लिए आभार.....

Kailash Sharma said...

सुन्दर रचना पढवाने के लिये आभार..

Vivek Jain said...

आप सभी को सादर धन्यवाद
-विवेक जैन

Dr (Miss) Sharad Singh said...

दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।


बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना !
हार्दिक शुभकामनायें !

Urmi said...

बहुत सुन्दर और लाजवाब रचना! बेहद पसंद आया!

virendra sharma said...

किन्तु पतंग भाग्य लिपि काली ,विधना की छलना है .

डॉ. नागेश पांडेय संजय said...

अति सुन्दर... ...


कोई किसी के बिना जी न सके-यह नेह का एकांगी रूप है। नेह पूर्ण वैभव के साथ तब उद्भाषित होता है जब कोई किसी के बिना मर न सके।
नेह पाने का नहीं, कदाचित् खोने का नाम है। हर पल, हर क्षण किसी को मन कुटिया में बसाए रखने का नाम है। स्मरण नेह नहीं-विस्मरण के भरसक प्रयत्न की असफलता का नाम नेह है। अपना हित-अपनी कामनाओं की पूर्ति नेह नहीं है, दूसरे के हित को अपना हित मानकर उसके लिए स्वयं को उत्सर्ग कर देना नेह है।

ZEAL said...

very nice.

Amrita Tanmay said...

इस सुन्दर पोस्ट के लिए बहुत बहुत आभार

Dr. Sunil Nirala said...

गुप्त जी

Unknown said...

सर व्याख्या चाहिए please sir