दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!
सीस हिलाकर दीपक कहता--
’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
पर पतंग पड़ कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।
बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नही तो मरा करे क्या?
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।
कहता है पतंग मन मारे--
’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?
शरण किसे छलता है?’
दोनों ओर प्रेम पलता है।
दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।
जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती जिससे चखती;
काम नहीं, परिणाम निरखती।
मुझको ही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।
-मैथिलीशरण गुप्त
Sunday, May 22, 2011
दोनों ओर प्रेम पलता है
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28 comments:
आभार!
गुप्त जी की यह रचना मैंने नहीं पढ़ी थी. आपको धन्यवाद. यदि आपकी रचनाएँ पढ़ने को मिलें तो मुझे और भी खुशी होगी.
मैथिलि शरण गुप्त जी की यह रचना संभवतः साकेत से ही है. लगभग तीन दशक पूर्व साकेत पढी थी. गैर हिन्ढी भाषी पर्वतीय प्रदेश के एक छोटे से क़स्बे में रहता था. समय इफरात था परन्तु किताबें नहीं मिलती थी पढने को. एक सरकारी पुस्तकालय में साकेत मिल गयी. तब पढी थी. आज आपने वह याद ताजा कर ली.
इस सुन्दर पोस्ट के लिए बहुत बहुत आभार. - Please be follower of- baramasa98.blogspot.com
बहुत अच्छी कविता पढवाने के लिए आभार।
आभार।
आप सभी का आभार
-विवेक जैन
सुबीर रावत जी, आपने बिल्कुल सही कहा,ये पंक्तियाँ साकेत से ही हैं, धन्य है आपका ज्ञान!
विवेक जैन
guptji ki itani achchi rachanaa padhwane ke liye aapka bahut-bahut dhanyawaad.aabhaar.
plese visit my blog and leave the comments also.thanks
इश्क गर एक तरफ हो तो सजा देता है...
और जब दोनों तरफ हो तो मज़ा देता है...
Mathilisharan gupt ji ki yah rachna prastut kar hamare samaksh lane hetu hardik dhanywad .
दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।
rashtr kavi shri maithli sharan gupt ji kee aisee bhavpoorn kavita padhvane ke liye vivek ji aapka hriday se aabhar prakat karti hoon.
प्रेम भाव से ओत-प्रोत मैथिली शरण गुप्त जी की यह रचना प्रस्तुत करने के लिए आभार।
राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जी का सुन्दर गीत पढवाने का आभार ....
प्रेम पर पतंगा भी बलिदान करता है तो मनुष्य क्यों नहीं
दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।
बेहद खूबसूरत रचना
beautiful lines !!!
sundar...yah gupt ji ka prasiddh geet hai---aabhaar...
बहुत अच्छी कविता पढवाने के लिए आभार.....
सुन्दर रचना पढवाने के लिये आभार..
आप सभी को सादर धन्यवाद
-विवेक जैन
दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।
बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना !
हार्दिक शुभकामनायें !
बहुत सुन्दर और लाजवाब रचना! बेहद पसंद आया!
किन्तु पतंग भाग्य लिपि काली ,विधना की छलना है .
अति सुन्दर... ...
कोई किसी के बिना जी न सके-यह नेह का एकांगी रूप है। नेह पूर्ण वैभव के साथ तब उद्भाषित होता है जब कोई किसी के बिना मर न सके।
नेह पाने का नहीं, कदाचित् खोने का नाम है। हर पल, हर क्षण किसी को मन कुटिया में बसाए रखने का नाम है। स्मरण नेह नहीं-विस्मरण के भरसक प्रयत्न की असफलता का नाम नेह है। अपना हित-अपनी कामनाओं की पूर्ति नेह नहीं है, दूसरे के हित को अपना हित मानकर उसके लिए स्वयं को उत्सर्ग कर देना नेह है।
very nice.
इस सुन्दर पोस्ट के लिए बहुत बहुत आभार
गुप्त जी
सर व्याख्या चाहिए please sir
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