हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो हम थे परेशाँ तुमसे ज़ियादा
चाक किये हैं हमने अज़ीज़ों चार गरेबाँ तुमसे ज़ियादा
चाक-ए-जिगर मुहताज-ए-रफ़ू है आज तो दामन सिर्फ़ लहू है
एक मौसम था हम को रहा है शौक़-ए-बहाराँ तुमसे ज़ियादा
जाओ तुम अपनी बाम की ख़ातिर सारी लवें शमों की कतर लो
ज़ख़्मों के महर-ओ-माह सलामत जश्न-ए-चिराग़ाँ तुमसे ज़ियादा
हम भी हमेशा क़त्ल हुए अन्द तुम ने भी देखा दूर से लेकिन
ये न समझे हमको हुआ है जान का नुकसाँ तुमसे ज़ियादा
ज़ंजीर-ओ-दीवार ही देखी तुमने तो "मजरूह" मगर हम
कूचा-कूचा देख रहे हैं आलम-ए-ज़िंदाँ तुमसे ज़ियादा
-मजरूह सुल्तानपुरी
Sunday, May 15, 2011
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11 comments:
जिन खोजा तिन पाइयाँ...बड़ी गहरी पैठ है...
वाह।
baut bahut hi accha likah he aapne
बहुत खूब ... मजरूह जी की बात ही क्या ...
आप सभी का आभार! और खरे साहब, मैं कविता नहीं लिखता, ये मजरूह जी की रचना है
विवेक जैन
vivek ji sunder gazal padhvane ka bahut shukriya
rachana
प्रभावकारी लेखन के लिए बधाई।
कृपया बसंत पर एक दोहा पढ़िए......
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शहरीपन ज्यों-ज्यों बढ़ा, हुआ वनों का अंत।
गमलों में बैठा मिला, सिकुड़ा हुआ बसंत॥
सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी
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मजरूह सुल्तानपुरी की शानदार ग़ज़ल से रूबरू करवाने के लिए धन्यवाद!
बहुत सुन्दर, भावपूर्ण और शानदार ग़ज़ल लिखा है आपने ! बधाई!
मजरूह जी के कलाम से रूबरू होने का अवसर मिला आपके ब्लॉग पर, बहुत सुंदर. धन्यबाद.
आप सब का बहुत बहुत धन्यवाद
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
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