Friday, May 13, 2011

तुम कागज पर लिखते हो

तुम काग़ज़ पर लिखते हो
वह सड़क झाड़ता है
तुम व्यापारी
वह धरती में बीज गाड़ता है ।
एक आदमी घड़ी बनाता
एक बनाता चप्पल
इसीलिए यह बड़ा और वह छोटा
इसमें क्या बल ।
सूत कातते थे गाँधी जी
कपड़ा बुनते थे ,
और कपास जुलाहों के जैसा ही
धुनते थे
चुनते थे अनाज के कंकर
चक्की पीसते थे
आश्रम के अनाज याने
आश्रम में पिसते थे
जिल्द बाँध लेना पुस्तक की
उनको आता था
भंगी-काम सफाई से
नित करना भाता था ।
ऐसे थे गाँधी जी
ऐसा था उनका आश्रम
गाँधी जी के लेखे
पूजा के समान था श्रम ।
एक बार उत्साह-ग्रस्त
कोई वकील साहब
जब पहुँचे मिलने
बापूजी पीस रहे थे तब ।
बापूजी ने कहा - बैठिये
पीसेंगे मिलकर
जब वे झिझके
गाँधीजी ने कहा
और खिलकर
सेवा का हर काम
हमारा ईश्वर है भाई
बैठ गये वे दबसट में
पर अक्ल नहीं आई ।

-भवानीप्रसाद मिश्र

7 comments:

Kailash Sharma said...

इतनी प्रेरक रचना पढवाने के लिये आभार..

प्रवीण पाण्डेय said...

आभार सुन्दर रचना पढ़वाने का।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

प्रेरक रचना पढवाने के लिए आभार

Sunil Kumar said...

प्रेरक रचना पढवाने के लिये आभार.....

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत बढ़िया ...साझा करने का आभार

Khare A said...

prerna deti aur utsah vardhan karti hui aapki rachna

Richa P Madhwani said...

http://shayaridays.blogspot.com/