तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है
सचमुच आज काट दी हमने
जंजीरें स्वदेश के तन की
बदल दिया इतिहास बदल दी
चाल समय की चाल पवन की
देख रहा है राम राज्य का
स्वप्न आज साकेत हमारा
खूनी कफन ओढ़ लेती है
लाश मगर दशरथ के प्रण की
मानव तो हो गया आज
आज़ाद दासता बंधन से पर
मज़हब के पोथों से ईश्वर का जीवन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है।
हम शोणित से सींच देश के
पतझर में बहार ले आए
खाद बना अपने तन की-
हमने नवयुग के फूल खिलाए
डाल डाल में हमने ही तो
अपनी बाहों का बल डाला
पात-पात पर हमने ही तो
श्रम जल के मोती बिखराए
कैद कफस सय्याद सभी से
बुलबुल आज स्वतंत्र हमारी
ऋतुओं के बंधन से लेकिन अभी चमन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है।
यद्यपि कर निर्माण रहे हम
एक नई नगरी तारों में
सीमित किन्तु हमारी पूजा
मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारों में
यद्यपि कहते आज कि हम सब
एक हमारा एक देश है
गूँज रहा है किन्तु घृणा का
तार बीन की झंकारों में
गंगा जमना के पानी में
घुली मिली ज़िन्दगी हमारी
मासूमों के गरम लहू से पर दामन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा लेकिन मन आज़ाद नहीं है।
-गोपाल दास नीरज
सचमुच आज काट दी हमने
जंजीरें स्वदेश के तन की
बदल दिया इतिहास बदल दी
चाल समय की चाल पवन की
देख रहा है राम राज्य का
स्वप्न आज साकेत हमारा
खूनी कफन ओढ़ लेती है
लाश मगर दशरथ के प्रण की
मानव तो हो गया आज
आज़ाद दासता बंधन से पर
मज़हब के पोथों से ईश्वर का जीवन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है।
हम शोणित से सींच देश के
पतझर में बहार ले आए
खाद बना अपने तन की-
हमने नवयुग के फूल खिलाए
डाल डाल में हमने ही तो
अपनी बाहों का बल डाला
पात-पात पर हमने ही तो
श्रम जल के मोती बिखराए
कैद कफस सय्याद सभी से
बुलबुल आज स्वतंत्र हमारी
ऋतुओं के बंधन से लेकिन अभी चमन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है।
यद्यपि कर निर्माण रहे हम
एक नई नगरी तारों में
सीमित किन्तु हमारी पूजा
मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारों में
यद्यपि कहते आज कि हम सब
एक हमारा एक देश है
गूँज रहा है किन्तु घृणा का
तार बीन की झंकारों में
गंगा जमना के पानी में
घुली मिली ज़िन्दगी हमारी
मासूमों के गरम लहू से पर दामन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा लेकिन मन आज़ाद नहीं है।
-गोपाल दास नीरज
2 comments:
मासूमों के गरम लहू से पर दामन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा लेकिन मन आज़ाद नहीं है। ....सुन्दर भावो से ओत-प्रोत ..सुन्दर रचना आभार..
गोपाल दास नीरज की लोकप्रिय रचनाओं में यह रचना भी शामिल हो पता नहीं। किन्तु आपने उनकी शैली की एक और बानगी प्रस्तुत कर दी। आभार आपका।
इस बीच लम्बे अरसे बाद ब्लॉग पर आये। चिन्ता हो रही थी। मैंने एक ईमेल भी भेजी थी। खुशी हुयी कि आपकी वापसी हो गयी।
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