कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
सीमित उर में चिर-असीम
सौंदर्य समा न सका
बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग
मन रोके नहीं रुका
यों तो कई बार पी-पीकर
जी भर गया छका
एक बूँद थी, किंतु,
कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी
कण-कण में बिखरी
मिलन साँझ की लाज सुनहरी
ऊषा बन निखरी,
हाय, गूँथने के ही क्रम में
कलिका खिली, झरी
भर-भर हारी, किंतु रह गई
रीती ही गगरी।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
-शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
Friday, April 8, 2011
पर आँखें नहीं भरीं
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6 comments:
Bahut hi Umda Sankalan hai ..
aabhaar..
अहा, आनन्दमयी।
अच्छा प्रयास अच्छी रचनाओं को मित्रों के साथ बांटने का, बधाई विवेक भाई
padhte padhte man nahi bhara...
dhanyavaad
कलिका खिली, झरी
भर-भर हारी, किंतु रह गई
रीती ही गगरी।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
... sundar prempagi rachna....
'Suman' ji kee sundar rachna prastuti ke liye aapka aabhar
Aapke sahitya prem ne prabhavit kiya...jaari rakhiye..shubhkamna
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