Thursday, April 28, 2011

जो न बन पाई तुम्हारे

जो न बन पाई तुम्हारे
गीत की कोमल कड़ी।

तो मधुर मधुमास का वरदान क्या है?
तो अमर अस्तित्व का अभिमान क्या है?
तो प्रणय में प्रार्थना का मोह क्यों है?
तो प्रलय में पतन से विद्रोह क्यों है?
आये, या जाये कहीं—
असहाय दर्शन की घड़ी;
जो न बन पाई तुम्हारे
गीत की कोमल कड़ी।

सूझ ने ब्रम्हांड में फेरी लगाई,
और यादों ने सजग धेरी लगाई,
अर्चना कर सोलहों साधें सधीं हाँ,
सोलहों श्रृंगार ने सौहें बदीं हाँ,
मगन होकर, गगन पर,
बिखरी व्यथा बन फुलझड़ी;
जब न बन पाई तुम्हारे
गीत की कोमल लड़ी।

याद ही करता रहा यह लाल टीका,
बन चला जंजाल यह इतिहास जी का,
पुष्प पुतली पर प्रणयिनी चुन न पाई,
साँस और उसाँस के पट बुन न पाई,

-माखनलाल चतुर्वेदी

4 comments:

Kailash Sharma said...

इतनी सुन्दर रचना को पढवाने के लिये आभार..

संजय भास्‍कर said...

सुन्दर रचना को पढवाने के लिये आभार..

संजय भास्‍कर said...

सुन्दर रचना को पढवाने के लिये आभार..

Anonymous said...

bahut abhar..